शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

भूत प्रेत का नृत्य 


















सुनने में बहुत ही अजीब लगता है कि भला भूत-प्रेत भी नाचते हैं क्या? यकीन मानिए मैंने खुद भूत प्रेतों को नाचते हुए देखा है और ये बिल्कुल ही सत्य कथा है।

बात उस समय की है जब मैंने बी.ए. अंतिम वर्ष में था। अप्रैल का अंतिम हफ्ता चल रहा था और अंतिम वर्ष की परीक्षाएं खत्म हो चलीं थी। खुशी इस बात की नहीं थी कि मेरी परीक्षाएँ खत्म हो गयी थीं बल्कि खुशी इस बात की थी कुछ दिनों बाद ही 6 मई को मेरी बड़े भाई की बेटी हुई थी। जिस दिन उसका जन्म हुआ भईया की पदोन्नती भी उसी दिन हुई थी। घर मे खुशी का माहौल था। सभी लक्ष्मी का अवतार मान रहे थे। हमारे गांव से हमारी चाची आई थी। मेरी भतीजी को दो-दो दादियों का प्यार मिल रहा था। मेरी मम्मी नवजात शिशू की देख रेख करती तो चाची पूरे घर का काम संभालती। रसोईघर से ले कर साफ सफाई की ज़िम्मेदारी चाची की ही थी। 

मैं भी पूरे दिन अपनी नन्ही सी पारी को लाड प्यार करता रहता था। नए मेहमान के आने के बाद मानो वक़्त का पता ही नही लग रहा था कि कैसे गुजर रहा था। जब हमारी गुड़िया 1 महीने को हो गई तो चाची ने मम्मी से कहा-"दीदी यहां आपलोगो के साथ रहते रहते वक़्त का बिल्कुल पता ही नहीं लगा। वहां गांव में तो दिन काटना बड़ी ही झेल हो जाती थी और रातें तो जैसे काटने को दौड़ती थी। लेकिन अब गांव में भी कुछ दिनों बाद धान की फसल करवानी है। छोटू के पापा वहां अकेले होंगे। अब मुझे लगता है कि मेरे वहां जाने का उचित समय आ गया है।"

मेरी मम्मी बोली-"ठीक है जैसा आप कहिए! कल ही आपकी टिकट्स करवा दूंगी।"

यह सुनकर चाची चेहरे पर थोड़ी मुस्कुराहट लाते हुए बोलीं- "दीदी मैं सोच रही थी कि जब गांव से इतनी दूर देहरादून आ गई गई हूं तो क्यों न अपने मायके कुछ दिन रुक कर उधर से ही निकल जाऊं। क्योकिं उतनी दूर से फिर आना हो नहीं पाता है।" मम्मी ने बहुत ध्यान से उनकी बातों को सुना और बोली- "वो सब तो ठीक है लेकिन देवर जी तो गांव में हैं आप जाएंगी कैसे?"

चाची बोलीं- "मैं सोच रही थी कि टींकू की परीक्षाएं भी खत्म हो चली हैं क्यों न इसको साथ ले जाऊं।"

मैं वहीं खड़ा सारी बाते सुन रहा था। मैं मन ही मन मे बहुत उत्साहित था क्योकिं मैं अपनी मम्मी के मायके (अपने नानागांव) तो बहुत बार गया था लेकिन चाची के मायके कभी नहीं गया था। छोटू (चाची का बेटा) हमेशा छुट्टियों में वहां जाता रहता था और मैं अपने नानागांव चला जाता था। इस बार बहुत अच्छा मौका मिला था। मैं माँ के जवाब का इंतजार कर रहा था। मेरी माँ किसी सोच में डूब गई थी, और उस सवाल का जवाब नहीं दे पाई थ। तब चाची ने दुबारा कहा-" क्या हुआ दीदी? किस सोच में पड़ गए?"

मम्मी ने गम्भीर मुद्रा में जवाब दिया-"हम्म ले जाइए लेकिन जल्दी ही इसे भेज दीजिएगा, क्योकिं यहां भी एक इन्सान हमेशा चाहिए क्योकिं इसके पापा को ड्यूटी से आने में शाम हो जाती है। कम से कम ये घर मे रहेगा तो कुछ आवश्यक सामान की जरूरत महसूस होगी तो तकलीफ न हो हमे।"

मैं अब बहुत खुश था क्योंकि मैंने उसी दिन लिंक एक्सप्रेस में तत्काल में दो टिकट्स कर लिए थे कल की। ट्रैन दिन में 1:30 बजे देहरादून से खुलते हुए कानपुर होते हुए इलाहाबाद तक जाती थी। कानपुर पहुँचने का समय सुबह 4 बजे ही था।

मैं रात को कपड़े प्रेस करने के बाद मैं अपना बैग ले जा कर कमरे में रखने ही जा रहा था कि मैंने देखा माँ थोड़ी परेशान सी थी। थोड़ी देर में वो कमरे में पापा के पास बात करने गई। मैं भी अपने कमरे में बैग रखने चल पड़ा। तभी पिताजी की तेज आवाज सुनकर मैं वहीं दरवाजे पर रुक गया।

"पागल हो क्या? इक्कीसवीं शताब्दी में भी हो कर ऐसी बातें करती हो। कुछ नहीं होगा उसे। वो अब कोई छोटा बच्चा नहीं है। अपने भले बुरे की समझ है उसको।" पिताजी ने तेज आवाज में कहा था। मम्मी घबरा गई और चिंतित स्वर में कहा-" लेकिन है तो बच्चा ही उन रहस्यमयी शक्तियों के सामने वो क्या कर पाएगा।"

पिताजी ने कहा-" अरे मैं सब जानता हूँ, लेकिन वो सब पुरानी बातें है। जब से नरकटियागंज वाले गुरुजी ने घर को रक्षासूत्र में बांधा है, तब से कोई भी घटनाएं घटित नहीं हुई हैं।"

तभी अचानक पिताजी की नजरें मुझ पर पड़ी और बोले-"कौन है वहां? अंदर आ जाओ।"

मेरी यह सब बातें समझ से परे थी। लेकिन उनकी बातों से मुझे कुछ अनहोनी का अंदेशा लगा था। मैंने चुप चाप अपने बैग को रखा और कमरे के बाहर चला आया। मैंने उस वक़्त उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया क्योकिं किसे पता था कि आगे चल कर वही सबसे बड़ी भूल बन जाएगी।

      हमलोग वक़्त से रेल्वे स्टेशन आ गए और लिंक एक्सप्रेस पकड़ कर कानपुर रेल्वे स्टेशन पहुँच गए। चाची का मायका वहां से 20 की.मी. दूर कानपुर और विजयनगर के बीच पनकी नामक जगह पड़ता था। वैसे पनकी भी रेलवे स्टेशन है परन्तु वो बहुत छोटा सा स्टेशन है जहां ईक्के-दुक्के एक्सप्रेस गाड़ी रुकती थी। लिंक एक्सप्रेस वहां नही रुकती थी इसलिए हमें कानपुर ही उतरना पड़ा था। वहां ऑटो वाले से बात की नजर वो 180₹ में तैयार हो गया लें जाने को। कानपुर एक भीड़ भाड़ वाला इलाका है। यहां की आबादी अच्छी खासी थी। हमलोग लगभग 40 मिनट में पनकी पहुँच गए। 

ऑटो से उतरते मैंने काले गेट के बगल में तख्ती पर पढ़ा सँवरू राम। मुझे नानाजी का नाम आज तक नहीं पता था। मैंने ऑटो से सामान उतारा और चाची के पीछे पीछे हो लिया। घडी में सुबह के 5 बजे का वक़्त हो रहा था। नानी और नानाजी आज बहुत खुश थे। वो लोग सुबह 4 बजे से ही उठकर हमलोगों की राह ताक रहें थे। पहला कारण यह था कि चाची बहुत समय बाद मायके आई थीं और दूसरा यह कि मैं पहली बार वहां आया था। मेरी आव-भगत किसी शहजादे जैसी हो रही थी। मुझे उनलोगों के प्यार में बिल्कुल अपनापन सा ही महसूस हुआ। 

मैंने चाय पी और फटाफट फ्रेश होकर नहाने चला गया क्योकि मेरी आदत हमेशा रही है कि मैं अक्सर नहाने के बाद ही नास्ता करता हूँ। नास्ता इतना लजीज बना था कि विश्वास करना मुश्किल था कि नानी 82 वर्ष की आयु में भी इतनी अच्छी कैसे बना लेती है। वो कहते हैं ना कि अगर बनाने वाला दिल से कुछ भी बनाए तो भगवान भी खुद उसकी मदद कर देते हैं। नानी टकटकी लगा कर मुझे खाते हुए देख रही थी और उनके आंखों में आंशू भी छलक रहे थे। आंशू छलकने की मुख्य कारण यह था कि, पहले मामाजी और मामीजी अपने बेटे और बेटी के साथ यहीं रहते थे। परन्तु मामी के झगड़ालू स्वभाव होने के कारण एक दिन बहस इतनी परवान पर चढ़ी की मामी, अपने बच्चों और मामा को बोरिया बिस्तर सहित अपने मायके विजयनगर में ही शिफ्ट हो गयी थी।

              सुबह से सारा खाना मेरे मन मुताबित बन रहा था। यात्रा की वजह से मुझे बहुत थकान महसूस हो रही थी। इसकी वजह वहां की गर्मी भी हो सकती थी। कूलर के पास लेटते ही पता ही नही लगा कि मुझे कब नींद आ गई। मैं शाम को 6:30 बजे उठा और फिर स्नैक्स और चाय ने मुझ में फुर्ती जगा दी। चाय पीने के बाद मैं छत पर टहलने चला गया। छत पर जाते ही मैं इधर उधर मुआवना करना शुरू कर दिया। घर से लगभग 20 फ़ीट की दूरी पर ही रेलवे लाइन जा रही थी और पटरी के दूसरी तरफ घना जंगल था। वहां से कोयल की मधुर ध्वनि आ रही थी जो मन को मोह ले रही थी। सूर्य की किरण भी डूबते डूबते आपनी लालिमा बिखेर रही थी। 

मैं थोड़ी देर में नीचे आ गया और नाना तथा नानी ने मुझसे चित-परिचित अंदाज में मेरे और मेरे कैरियर के बारे में विचार विमर्श करने लगे जैसे कि आगे क्या पढ़ना चाहते हो और किस क्षेत्र में मुझे रुचि है। बातों का सिलसिला चलता रहा फिर थोड़ी देर में डिनर के लिए न्योता ले कर नानी आ गई। आज सोमवार का दिन था। खाने में जब मैंने देखा कि गर्मा-गर्म खीर पूरियां बनी है तो अपने आपको रोक न सका और चार चार दाल भरी पूरियां पेल गया। खीर के स्वाद ने तो माँ की याद दिला दी। डिनर करने के बाद में उस कमरे में सोने चले गए जिस रूम में कभी मामा सोया करते थे। सुबह जल्दी उठ कर मैं स्नान करने के बाद नाना के साथ कानपुर का ज़ू (अजायबघर) देखने गया। ज़ू (अजायबघर) पनकी से बहुत दूर था इसलिए हमें आने में दोपहर हो गई थी।

      शाम को जब डिनर में मैंने बटर चिकन देखा तो मेरे मुंह मे पानी आ गया। चाची को पता था कि मुझे बटर चिकन बेहद पसन्द है शायद उन्होंने ही नानाजी से कह कर चिकन मंगवाया होगा और नानी के साथ मिलकर बनाया होगा। लेकिन मेरी खुशी ज्यादा देर तक लिए नहीं टिक पाई। जैसे ही मैंने मुर्गे की टांग को उठा कर उसका स्वाद लेना चाहा छत पर लगातार "धम्म धम्म" की आवाज आई। हम सभी लोग एक दूसरे का मुंह देख रहे थे, वो इसलिए कि नाना और नानी के साथ और कोई भी व्यक्ति नहीं रहता था तो इस वक़्त छत पर कौन हो सकता है। 

मैं यही सोच रहा था। आवाजे बन्द होने का नाम नहीं ले रही थी तो मैंने जैसे ही मुर्गे की टांग थाली में रख कर छत पर जा कर देखना चाहा तो नानी ने मेरा हाथ जोड़ से पकड़ लिया और बोली-"बेटा तुम खाओ आजकल गर्मी बहुत है न तो गर्मी की वजह से कभी छत से ऐसी प्रायः ऐसी आवाजे आती हैं।"

उनके ऐसा कहते ही वास्तव में वो आवाजे जो थोड़ी देर पहले आ रहीं थी अचानक से बंद हो गई। मैं कुछ न कह पाया क्योकिं मेरे सामने लजीज चिकन पड़ा जो मुझे अपनी और आकर्षित कर रहा था। मैंने सब छोड़ कर फिर से जैसे ही मुर्गे की टांग चखने के लिए उठाई ही थी कि फिर से छत पर "धम्म धम्म" की आवाज ने मेरा चिकन से ध्यान तोड़ कर छत की तरफ कर दिया। इस बार आवाज पहले से ज्यादा तेज थी। ऐसा लग रहा था कि छत पर दो लोग से ज्यादा थे और छत पर कोई नृत्य कर रहा है। एक बार फिर मैंने थाली में चिकन का टुकड़ा रख कर छत पर जाने का निर्णय किया। 

इस बार जैसे ही उठा था तो नानाजी चीख पड़े-" अरे बेटा इस तरह खाना खाते समय अन्न के सामने से नहीं उठते,अन्न का अपमान होता है और अन्न देवता नाराज हो जाते हैं। रुको मैं देख कर आता हूँ।" यह कहकर वो जिन्ने के सहारे छत पर चले गए। मुझे घोर अचरज हुआ क्योंकि जैसे ही नाना छत ओर गए, आवाज फिर से बन्द हो गयी। लेकिन नाना जैसे ही छत से नीचे आते वही "धम्म धम्म" की आवाजें फिर से आनी शुरू हो जातीं। 

ये सिलसिला काफी देर तक चलता रहा। चाची ने नाना को रोक लिया कि अब बार बार ऊपर न जाइए। आइये सभी एक साथ बैठकर खाना खाते हैं। उन सभी का ध्यान मुझ पर केंद्रित था कि किसी तरह मुझे छत पर न जाने दिया जाए। लेकिन मेरी आश्चर्य की सीमा हद तब पर गयी कब देखा मैंने की जैसे ही मेरा खाना खाना समाप्त हुआ वैसे ही वो आवाजें पूरी तरह से बन्द हो गयी थीं।

          मुझे लगा कि ह्म्म्म हो सकता है नानाजी सही कह रहे हों कि अत्यधिक गर्मी की वजह से छत रात में चटकने जैसी आवाज करती हो। लेकिन दूसरी तरफ मेरे मन मे डर के भाव भी पैदा कर रहे थे कि अगर गर्मी की वजह से आवाज होती तो जब नाना छत पर गए तो क्यों वो आवाजें आनी बन्द क्यों हो जाती थीं। बिस्तर पर लेटे लेटे इस घटना के मंथन में लगा हुआ था। मेंरी समझ मे कुछ नहीं आ रहा था कि आखिर यह हो क्या रहा था। सोचते सोचते घड़ी में रात के 2 बज गए थे। उन सवालो में उलझे उलझे कब नींद आ गई पता ही नहीं लगा।

सुबह जब चाची उस कमरे मे आईं जहां मैं सोया हुआ था और आकर जब खिड़की से पर्दों को एक तरफ खिसकाया तब तेज धूप मेरी आँखों पर पड़ी और मेरी नींद खुल गई। मैं उठ कर बिस्तर पर बैठ कर अंगड़ाई ले ही रह था तो चाची बोली-"बेटा जल्दी से नहा धो कर तैयार हो जाओ हम सभी लोग मंदिर चल रहे है घूमने के लिए। थोड़ी देर में मैं भी तैयार हो कर उनके सामने प्रस्तुत था।

हमलोग पनकी के सिद्धबली हनुमानजी के मंदिर गए। जो कि इस इलाके का सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। मंगलवार होने की वजह से मंदिर में बजरंगबली के दर्शन के लिए बहुत लम्बी लम्बी कतार लगी थीं। परन्तु नाना की जान पहचान पंडितजी के साथ होने पर ज्यादा वक्त नहीं लगा और बजरंगबली के दर्शन में भी कोई तकलीफ नहीं हुई। हमलोग दर्शन कर के वापिस पनकी में नाना के घर आ गए।

     शाम ढलते ही मेरे दिल मे अजीब सी बैचैनी होने लगी। मुझे पिछली रात की घटना याद आ गई। मेरे जेहन में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे। मैं यह भी सोच रहा था कि यदि कल जैसी घटना फिर हुई तो मैं अगले दिन ही देहरादून के लिए निकल जाऊंगा। थोड़ी देर में डिनर करने का वक़्त हुआ। मैं डिनर करने के लिए बैठा था और नानी और चाची मुझे और नाना को खाना परोसा रही थी। चाची ने जब देखा कि नानी भी खाना परोसा रही है तो चाची बोली-"मम्मी आप बैठो न, मेरे रहते आप क्यों तकलीफ कर रही हो?

चाची की बात सुनकर नानी पहले मुस्कुराई फिर बोली- "बेटी  पहली बार तो मेरा नाती यहां आया है। क्या मैं अपनी नाती को दुलार भी नहीं कर सकती?" उनके इस जवाब को चाची काट न सकी और मन्द मन्द मुस्कुराकर ही रह गई।

जब मेरी नजर थाली में स्वादिस्ट व्यंजनों पर पड़ी तो मन प्रफ्फुलित हो उठा। आज खाने में कश्मीरी पुलाव और तड़के की दाल थी जो कि मुझे अत्यंत प्रिय थी। तड़के के छोंको ने जहां भूख और भी बढ़ा दी थी तो दूसरी तरफ कश्मीरी पुलाव की सुगन्ध ने होश खोने पर मजबूर कर दिया था। खाना खाने पर पता चला कि खाने से जैसी खूबसूरत सुगंध आ रही थी खाना उस से भी कहीं बेहतर बनी थी। मैं खाने में इस तह खो गया कि मुझे कल रात वाली घटना का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रहा। 

मैंने आज जरूरत से ज्यादा खा लिया था इसलिए खाने के बाद सीधे बिस्तर पर जा कर लेट गया। लेकिन जैसे ही बिस्तर पर आया तो मुझे ख्याल आया कि कल वाली घटना आज क्यों नहीं हुई। आज खाना खाते वक़्त धम्म धम्म वाली आवाज़ क्यों नहीं आई? हमलोग आज मंदिर गए थे कहीं उसकी वजह से तो....। इस तरह के अजीब अजीब सवाल मेरे दिल में घर बना रहे थे। मैंने सोचा कि सही तो है अगर आज आवाज नहीं आई तो, नहीं तो मुझे जल्द ही यहां से निकलना पड़ जाता। अभी तो मैं कानपुर ढंग से घुमा भी नहीं था। मैंने मन ही मन बजरंगबली का शुक्रिया किया और चादर तान कर सो गया।

        अगली सुबह बारिश शुरू हुई और शाम तक लगातार बारिश ही होती रही, जिसके वजह से हमलोग कहीं जा नही पाए। शाम को चाय और पकौड़े के बाद हम चारो ने मिलकर लुड्डों खेला। नाना अक्सर मामा के दोनों बच्चों के साथ शाम को खेला करते थे। मैंने वहां आकर उनलोगों की पुरानी यादें ताजा कर दी थी। मैं भी उनलोगों के साथ काफी घुल मिल गया था जो कि मुझे भी बहुत भा रहा था। लुड्डों खेलने के बाद नाना सब्जियां वगैरह लेने सब्जी बाजार की तरफ चले गए थे और मैं नानी के साथ गप्पों में लग गया था।

रात के 9 बज रहे थे। रात को खाने का वक़्त हो चला था। हम चारो लोग खाना खाने के लिए बैठ गए। मेरे मन में उत्सुकता बढ़ रही थी कि आज खाने में क्या होगा? जैसे ही चाची ने मुझे खाना परोसा मैं हमेशा की तरह खुश हो उठा क्योकिं आज चिकन दम मसाला बना हुआ था। चिकन दम मसाला बनाने में चाची की टक्कर का कोई नहीं था। चिकन दम मसाला को देखते मेरे मुंह मे पानी आ गया। मैंने जैसे ही खाने के लिए हाथ बढ़ाया की "धम्मम धम्मम धड़ाम" जैसी आवाजे आने लगी। अचानक फिर से इस तरह की हरकतों से सभी लोग सहम गए। कुछ देर तक हमलोग बिल्कुल ही शांत रहे। चुप्पी तोड़ते हुए मैंने कहा-" नानाजी आखिर ये माजरा क्या है? कोई कुछ बताता क्यों नहीं?"

नाना बोले-"बेटा तुम खाओ इनसब चीज़ों पर ध्यान न दो।"

मैं बोला-" नहीं नानाजी अब नहीं। या तो आप बताओ नहीं तो मैं खुद छत पर जा कर देख कर आता हूँ।" यह कहते ही मैं झटके से कुर्सी छोड़ अपने जगह पर खड़ा हो गया। आज मुझे मामले की तह तक जाना था। नानाजी आज मेरे सामने वाले कुर्सी पर बैठे थे, जब तक वो हाथ पकड़ा कर कल की तरह मुझे बैठाते मैं लपक कर छत की तरफ फुर्ती से चल पड़ा। सभी खुले मुंह से मेरी तरफ ध्यान से देख रहे थे।

मैं जैसे ही सीढ़ी चढ़ता हुआ छत पर पहुँचा छत का नजारा देखते ही मेरे होश उड़ गए। मेरे पांव अपनी जगह पर ही जम गए। मेरे आंखों पर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था। मैं डर के मारे पसीने से तर बतर हो गया। मैं चीख मार कर वहीं गिर पड़ा। मेरे गिरते ही सभी छत पर दौड़े चले आये थे। मुझे सम्भलते हुए वो लोग नीचे कमरे में ले कर आए। मेरी आंखे खुली की खुली थी। वो लोग मेरे इस हालत को देख कर परेशान हो गए। उनलोगों ने मुझे वहां बिस्तर पर लिटा दिया और मेरे साथ नानी को वहीं रुकने को कह दिया। नाना उस कमरे से बाहर आ गए और चाची भी उनके पीछे पीछे हो चलीं थी। मैं कुछ करने की हालत में नहीं था लेकिन मेरे कानों में नाना और चाची की बातें आ रही थी।

"इसको जब तक मैं रोकता तब तक ये छत पर चल गया था। अब मैं इसको क्या कहूंगा और देहरादून क्या जवाब दूंगा।" नाना घबराए घबराए स्वर में चाची से बोल रहे थे। उनकी बातों को सुनकर चाची बोलीं-" पिताजी लेकिन ऐसा होना तो बन्द हो गया था न? फिर अचानक कुछ दिनों से कैसे शुरू हो गया?"

नाना-"ह्म्म्म जब से नरकटियागंज वाले नेपाली गुरुजी ने इस घर में पूजा हवन करने के बाद रक्षा सूत्र से बांधा था, तब से तो कोई भी इस तरह की अप्रिय घटना नहीं हुई। पता नहीं ये अचानक पिछले तीन दिनों से फिर से क्यों शुरू हो गया।"

उनकी बातों को सुनकर चाची ने कहा-"क्या कहा आपने? घटना बन्द होने के बाद इतने सालों बाद फिरसे परसो से शुरू हुआ है क्या?

नाना- हाँ बेटी उस दिन के बाद तो अब सीधे परसो ही हुआ है।

चाची- पिताजी क्यों न फिर से नेपाल के नरकटियागंज वाले गुरुजी से बात की जाए? हो न हो वो जरूर इस समस्या का समाधान निकालेंगे।

नाना थोड़ी देर सोचने के बाद बोले-"हाँ बिल्कुल सही कहा तुमने। अभी मैं उन्हें फ़ोन लगाता हूँ। यह कहकर नानाजी ने अपना मोबाइल निकाला और गुरुजी को फ़ोन लगा दिया। थोड़ी देर में ही उनको फ़ोन लग गया और गुरुजी ने फ़ोन उठा लिया।

नानाजी-"कोटि कोटि नमन गुरुजी।"

गुरुजी-"आयूष्मान भवः। कहो कैसे याद किया?"

नानाजी ने पूरी घटना गुरुजी को विस्तार से बता दिया। गुरुजी ने पूरी बात सुनने के बाद उनको कहा कि चिन्ता करने की बात नहीं है। वो किसी जजमान के गृह दोष निवारण के लिए लखनऊ ही आए हुए थे। उन्होंने कहा कि यहां का काम आज पूरा हो गया है वो कल सुबह ही वहां आ जाएंगे।" लखनऊ से कानपुर की दूरी मात्र 62 की.मी. ही थी जो कि सवा घंटे में ही आसानी से पहुंचा जा सकता था।

    सुबह 7:30 ही गुरुजी घर पहुँच गए थे। वहां पहुंच कर वो पूजा स्थल पर बैठ कर दोनों आंखों को बन्द कर के गहन ध्यान में लग गए। हम सभी उनका ध्यान से बाहर आने का इंतजार कर रहे थे। लगभग आधे घंटे बाद वो पूजा स्थल से उठे और मुझे गंगाजल देते हुए कहा कि इसे पूरे घर मे भी छिड़को औऱ इसे छत पर भी छिड़क देना। मैंने पूरे घर मे छिड़क दिया लेकिन छत पर जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैंने बचे हुए गंगाजल को पूजा वाले कमरे में रखा और गुरुजी के पास आ कर खड़ा हो गया। गुरुजी के मुख पर गजब का तेज था। उनके माथे पर लाल तिलक सुर्ख लाल था जो कि उनके व्यक्तित्व पर फब रहा था। उन्होंने सफेद रंग की धोती पहने हुए थी और शरीर के ऊपरी हिस्से पर जनेऊ धारण की हुई थी। गुरुजी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा-"देखिए घबराने वाली बात नहीं है। मैं सारे संकटों को दूर कर दूंगा।"

नाना बोले-"गुरुजी पिछली बार जब ऐसी ही घटनाएं हुई थी तब तो आपने घर को रक्षाशुत्र से बांध दिया था तो फिर यह दुबारा कैसे घटित हुई?"

गुरुजी-" इस घटना के दुबारा होने के पीछे ये लड़का ही ज़िम्मेदार है।"

गुरुजी की इस कथन से सभी चौक पड़े। मैं तो बिल्कुल ही घबरा गया था। मेरी बोलती बन्द हो गई। मेरे बिना कुछ किए ही मुझ पर इन सारी घटनाओं का इल्जाम लग गया था।

"ये क्या कह रहे है? यह भला  इस घटना के पीछे जिम्मेदार कैसे है? आखिर ऐसा इसने किया क्या है?"

गुरुजी ने नानाजी की बातें सुनी फिर बड़ी धीरज और शान्त स्वर में कहा-" मैं शुरू से बताता हूँ तभी आपके समझ मे आएगा। बात उन दिनों की है जब मुझे आपलोगो ने पिछली बार बुलाया था। उस समय भी यही घटना हुई थी तब मैंने यहां विधिवत पूजा पाठ कर के इस घर को रक्षासूत्र में बांध दिया था।"

"ये सब तो हमे पता है। लेकिन आपने यह भी तो कहा था कि ऐसी घटना फिर नहीं होंगी।" गुरुजी की बातों के बीच मे ही चाची बोल पड़ी।

"हम्म मैंने बिलुकल ही ऐसी बात कही थी। मैं कहाँ मुकर रहा हूं। लेकिन मैंने साथ साथ आप सभी को हिदायत दी थी। क्या आपलोगों को याद है? मूझे लगता है समय के साथ साथ आप सभी लोग भूल गए।" गुरुजी इतना कहते ही एक बार फिर से मुस्कुराकर नानी के तरफ देखने लगे। नाना बोले-"कैसी हिदायत गुरुजी। कृप्या अपनी बातों पर प्रकाश डालिए।"

" मैंने आपलोगो को उस वक़्त दो बातें कही थी। पहली बात तो ये कही थी कि इस घर में वास्तु दोष है। इस घर का प्रवेश द्वार दक्षिण की तरफ है जो कि वास्तु के अनुसार पूर्व दिशा में होना चाहिए। दक्षिण दिशा यमराज और कुबेर का प्रवेश द्वार  होता है। कुबेर जी की कृपा से धन की कमी तो नहीं रहेगी लेकिन यह दिशा यमराज के होने के कारण इस घर के लोगों के स्वास्थ्य पर काफी नुकसान पहुँचाता है। मैंने आपलोगो को हिदायत दी थी कि इस घर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की तरफ करने को परन्तु पूर्व दिशा की तरफ करने से समस्या का समाधान नहीं होता। आपलोगो की सामाजिक समस्या औऱ बढ़ जाती क्योकि पूर्व दिशा में कुछ फुट की दूरी ओर ही रेलवे की पटरियां हो कर निकलती हैं इसलिए उधर आवागमन के लिए उचित नही रह पाता और वो कॉलोनी का पिछला हिस्सा पड़ता है इसलिए उधर करने का कोई औचित्य ही नही रहा था। इसलिये मैंने इस घर को हवन और मंत्रो से शुद्ध कर के इसको रक्षासूत्र से बांध दिया था। रक्षासूत्र बांधने के बाद मैंने आप सभी को दूसरी हिदायत यह दी थी कि इस घर मे कभी भी कोई माँस और मदिरा का प्रयोग नहीं करेगा अन्यथा इसके भयंकर परिणाम भुगतने को तैयार रहना।" गुरुजी के मुख से यह सुनते ही हमसभी के तोते उड़ चले थे।

नाना और नानी को अपने भूल का एहसास हुआ। ऐसा नहीं था कि उनलोगों ने जानबूझ कर ऐसा किया बल्कि वे लोग पुत्री और नाती के मोह में गुरुजी की दूसरी हिदायत को भूल गए थे। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोलें-"आपके पुत्र और पुत्रवधू का इस घर को छोड़कर जाने की वजह भी यही है कि आपके पुत्र को हर सप्ताहंत में मदिरा और मांस चाहिए होता था। आपदोनो ने उस दिन पूजा के बाद कभी ऐसी तामसिक चीजो को घर मे लाने से साफ साफ मना कर दिया था। जब एक दिन घर मे आपकी बहू, बिना आपके आज्ञा के मुर्गे का मांस पका रही थी तो उसके दुर्गन्ध से आपकी धर्मपत्नी को पता चल गया और घर मे कोहराम मच गया। आपका बेटा सत्यदेव उस दिन कहीं बाहर से ही पी कर आया था और अपने ही माँ से क्रोधित स्वर में चीख़ चीख़ कर ऊंची आवाज में बातें कर रहा था। अपनी पत्नी के आंखों में आप आंशू देख न सकें और गुस्से में आपने आपा खो दिया था और सबके सामने अपने पुत्र को एक जोरदार तमाचा रसीद कर दिया था। अगले सुबह ही वो अपने बीवी बच्चों सहित अपने ससुराल विजयनगर चला गया था जो कि आजतक लौट कर नहीं आया।"

"अब उन पुराने जख्मों को कुरेदने से क्या फायदा गुरुजी? आज उसे गए हुए लगभग 14 वर्ष हो चुके हैं। बची खुची ज़िन्दगी हम भी वनवास की तरह अकेले यहां गुजारते हैं।

कृप्या कर के एक बार फिर से हमे इस जंजाल से मुक्ति दिलवाएं।" यह कहकर नाना ने अपने दोनों हाथों को जोड़ लिया और गुरुजी की तरफ अधीर भाव से देखने लगे।

गुरुजी-"देखो इसका बस एकमात्र उपाय है।"

"हम कुछ भी करने को तैयार हैं गुरुजी। बस आप बताइए हमे करना क्या होगा।" नाना मन में पक्का इरादा कर के बोले थे। मैं काफी देर से यह सभी बातें सुन रहा था। मुझसे रहा न गया और मैं बोल पड़ा-"गुरुजी वह सब तो ठीक है लेकिन मेरी एक बात समझ मे नहीं आई कि रह रह कर किसी दिन भी छत पर धम्मम धम्मम की आवाज क्यो करते हैं?

गुरुजी-"बेटे यह धम्म धम्म की आवाज ऐसे ही नहीं आती। तुमने गौर किया होगा कि जिस दिन इस घर मे मांस को पकाया गया होगा वो उसी दिन इस तरह का उत्पात मचाते हैं और हां वो धम्म की आवाज ऐसे ही नहीं आ रही थी। उसके पीछे भी कारण है?"

"कारण भला इसके पीछे क्या कारण हो सकता है गुरुजी?"

गुरुजी-"वो नृत्य करते हैं।"

मैं बोला-" नृत्य भला इसमे नृत्य करने की क्या बात है?"

गुरुजी बोले- इस घर मे चिकन (मांस) आने की खुशी में वो नृत्य करते हैं क्योंकि जैसे ही इस घर मे चिकन आता है उनकी निद्रा टूट जाती है जिसको मैंने अपने रक्षासूत्र से बांधा था। वे प्रेत जश्न मनाते हैं कि उनके ऊपर अब कोई भी किसी तरह का बंधन नही है जो उनको रोक सके।"

मैं बोला-"लेकिन मैंने तो उस दिन छत पर चार कंकालों को देखा था जो कि बहुत ही भयानक दिख रहे थे। उनके शरीर पर कहीं भी मांस का टुकड़ा नहीं था। बहुत की खूंखार और डरावने दिख रहे थे।"

गुरुजी-" बेटा उन नर कंकालों से ही उनकी मुक्ति के राज भी इसी घर से जुड़े हैं।" इस घर के दक्षिण हिस्से में जहां तुम्हारे मामा का कमरा है ठीक उसी कमरे में जिस कमरे मे जमीन के अंदर चार नरकंकालों के शरीर पड़े हुए हैं। यह घर कभी इसी परिवार का हुआ करता था। वर्षों पहले यहां के भूमिहारों ने इस जमीन को हथिया लिया और जिसका यह घर था उनके घर रात के अंधेरे में घुसकर उस परिवार का गला रेत दिया और रातों रात वहीं ज़मीन के अंदर गहरी खुदाई कर के दफना दिया और इस घर को अपने कब्जे में कर के तुम्हारे नाना के पिताजी स्व० करीमन गुप्ता को मोटी रकम में बेच दिया था।"

मैं बोला-"मैं नहीं मानता इस बात को। मैं कैसे विश्वास कर लूं की आप जो कह रहे हैं सच कह रहे हैं।"

गुरुजी शालीनता के साथ मुस्कुराए और बोले-" बेटा मैंने सालो भगवान की तपस्या और ध्यान कर के कुछ सिद्धियां प्राप्त की है, जिसके फलस्वरूल मैं अलौकिक शाक्तियों को परास्त कर के समाधान ढूंढता हूँ। यदि तुम्हे तब भी विश्वास नही तो कल जब उस कमरे की खुदाई होगी तब खुद देख लेना।"

मैं बोला-"गुरुजी मेरा आपका अपमान करने का कोई इरादा नहीं था मैं तो बस उत्सुकतावश यह सवाल कर बैठा।"

गुरुजी मेरे उत्तर सुनकर मुस्कुरा दिए और कल उस कमरे की खुदाई के लिए चार मजदूर और पूजा की सारी विधि को पूर्ण करने के लिए सारे सामाग्री का बन्दोबस्त करने को कहा।

मैं पूरी रात नहीं सो पाया था। सारी रात इसी बैचैनी में निकाल दिया था कि कब सुबह होगी। मैंने पूरी रात करवटें बदल बदल के गुजार दी।

अगली सुबह जब मैं उठा तब मैंने देखा कि गुरुजी बरामदे में हवन कर रहे थे और मामा के कमरे में खुदाई का काम जारी था। लगभग पौन घंटे की मेहनत के बाद मजदूरों न चार नर कंकाल निकाले। मैं देखते ही चौक गया। मुझे गुरुजी की कल की बाते याद आ गईं। गुरू जी का भी हवन और पूजा खत्म हो चुका था। वो भी उस जगह पहुँचे और उन्होनें मुझे बताया कि जो नर कंकाल का समूह निकला है उसमें एक कंकाल नर का है और दूसरा कंकाल एक मादा का है जो कि पति और पत्नी थे। 

बाकी के दो नर कंकाल इनके मासूम बच्चों की थी। यह देख कर मेरी अंतरात्मा कांप गई कि कैसे कोई किसी की पराए धन संपत्ति के लिए मासूमों का भी खून कर सकता है। मैं उस घटना के अगले दिन ही देहरादून आ गया था। मेरे देहरादून आते ही चाची का फोन आया था कि मामा को अपनी उस दिन के बर्ताव पर पछतावा था और वो अपने परिवार के साथ वहां नाना और नानी के साथ रहने आ गए थे। आज उस घटना को हुए लगभग 18 वर्ष हो चले हैं लेकिन उस दिन के बाद न तो कोई अप्रिय घटना वहां घटित हुई न ही मैं कभी वहां जाने की दुबारा हिम्मत ही कर पाया। लेकिन आज भी उस घटना के बारे में कभी कभी सोचता हूँ तो ऊपर से नीचे तक सिहर उठता हूँ क्योंकि मैंने उस रात छत पर चार नर कंकालों को एक साथ नृत्य करते हुए देखा था।

समाप्त 

 

 

 

                                                    

 

 

 

 

 

 

 

 

बुधवार, 9 सितंबर 2020

आधी हकीकत आधा फ़साना

आधी हकीकत आधा फ़साना 











बात आज से 25 साल पहले की है। दूरस्थ गांव में विधुत की समस्या से लोग तब जूझ रहे थे। विधुत आपूर्ति होती भी तो चंद घंटों के लिए होती थी ऊपर से रात्रि में कम वोल्टेज होने के कारण बस बिजली के बल्ब का केवल तन्तु ही जलता था। इस समस्या का निदान गाँव मे मिट्टी के तेल का लैम्प या ढ़िबरी (कांच की छोटी शीशी में मिट्टी तैल डाल कर, बोतल के ढक्कन में छेद कर के कपड़े एक सिरा बोतल के अन्दर और दूसरा शिरा ढक्कन से होते हुए बाहर) को जला कर करते थे। अच्छे अस्पताल और विद्यालय गाँव से दूर होने के कारण वहां जाने के लिए भी काफी मशक्कत करने पड़ते थे। कारणवश लड़के तो इन्टरमीडिट तक की शिक्षा ग्रहण कर लेते थे परन्तु जिन लड़कियों ने मैट्रिक तक की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली तो उन्हें बहुत शौभाग्यशाली मानी जाती थी और उनके रिश्ते अच्छे और बड़े परिवार में होता था। उन दिनों गांव में मनोरंजन के साधन का अभाव होता था। सूर्यास्त के बाद ही भोजन कर के जल्दी सो जाया करते थे। दूरस्थ गांव में यातायात की सुविधा रात्रि 7 बजे के बाद बिल्कुल बन्द हो जाती थी।

उस वक़्त संयुक्त परिवार का बोलबाला होता था। घर में जो सबसे बड़े होते थे वो ही घर के मुखिया होते थे और उनका ही वर्चस्व होता था। उनका निर्णय ही अन्तिम फैसला होता था। उनकी बातों का विरोध करने का न तो किसी मे साहस होता था न ही हिम्मत। उन दिनों यदि किसी का विवाह भी तय करना हो, तो लड़की को देखने घर के बड़े बुजुर्ग और वो ही पुरुष जाते थे जो विवाहित होते थे। घर की महिलाओं को और जिस पुरुष या महिला की शादी की बात चलती थी उनका जाना या आमने सामने मुलाकात करवाना समाज के खिलाफ माना जाता था। विवाह एक त्यौहार की तरह मनाया जाता था। विवाह का कार्यक्रम  लगभग लगातर 10 दिनों तक तक चलता था। रिस्तेदार तब तक तक जमे रहते थे जब तक दूल्हा दुल्हन के ससुराल में ला कर पार्टी ना दे।

बहरहाल यह वाक्या 6 मई 1989 की है। मैं बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से अपनी स्नातक की पढ़ाई कर रहा था। मेरे मामा जी बनारस कैन्ट रेल्वे स्टेशन के रेल्वे कॉलोनी के पीछे रहते थे। उनका वहाँ पुस्तैनी घर था। मैं उन्हीं के यहां रह कर अपनी पढ़ाई पूरी कर रहा था। मई के महीने में गर्मियों के कारण 20 दिन का अवकाश होता था। मैंने अपने गाँव जाने का निर्णय किया। मेरे गाँव का नाम पहरमा है जो कि बनारस से 150 किलोमीटर की दूरी पर था। ट्रैन से सासाराम तक जाना होता था। क्योंकि वहां से गांव जाने के लिए 25 किलोमीटर दूरी बस से यात्रा कर के जाना पड़ता था। 25 कि.मी. की दूरी तय करने में बस से लगभग 1:30 घंटे लग जाते थे। इतना वक़्त लगने की वजह वहां की जर्जर सड़क थी, जो कि वहां के स्थानीय दबंगई लोगों के कारण थी। 

वहां पास के ही सोन नदी में दिन रात अवैध तरीके से खुदाई और ढुलाई के कारण सड़क की हालत नाजुक हो चली थी। मैंने बनारस से दून एक्सप्रेस पकड़ी जो कि शाम 4 बजे थी, परन्तु किसी कारणवश ट्रैन 1:30 घण्टे विलम्ब होने के कारण 5:30 बजे बनारस स्टेशन आई थी। मैं सासाराम 7:30 बजे रात को पहुंचा।
अब परेशानी का शबब ये था कि गांव के लिए अन्तिम बस 7:15 बजे निकलती थी। मैं 15 मिनट लेट पहुँचा था। मेरे दिमाग में उस व्यक्त अजीब दुविधा चल रही थी। एक तरफ मेरा दिमाग यह सोच रहा था कि शायद सवारी लेने के चक्कर से बस अभी ना खुली हो? दूसरी तरफ मेरा दिमाग यह कह रहा था कि आज रात यहीं वेटिंग रूम में इंतजार कर लूं। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र में इतनी रात जाना सही नहीं होगा।

मन में अजीब सी बैचैनी हो रही थी। लेकिन मैंने सोचा कि यदि 2 घंटे में पहुँच जाऊंगा तो पूरी रात आराम करने को मिल जाएगा और अगले दिन सुस्ती नहीं छाएगी। मैं दौड़ कर बस स्टैंड की तरफ भागा, जो कि रेलवे स्टेशन के बिल्कुल सामने थी। उस वक़्त बस स्टैंड से ज्यादा रोड के किनारे ही गाड़ी खड़ी रहती थी। मेरे पास समान ज्यादा नहीं था, इसलिए रेल्वे प्लेटफॉर्म से बस स्टैंड जाने में मुश्किल से 3 से 4 मिनट ही लगे होंगे।

मैंने वहां पहुचकर आस पास के लोगों से पूछा तो पता लगा कि बस अभी 5 मिनट पहले ही निकल चुकी है। मैं बिल्कुल हताश सा था, तभी मुझे वहां 2 लोग मिले जो कि उसी ट्रैन से उतरे थे। उनसे बात करके पता लगा कि वो लोग बरडीहां तक जाएंगे जो कि मेरे गाँव पहरमा से मात्र 5 किलोमीटर पहले पड़ता था। उन्होंने एक ट्रेक्टर वाले से बात की थी जो उन्हीं के गांव का था और वो ईंट बजरी लेकर बरडीहाँ तक जाने वाला था। मैंने बात की तो वो लोग मुझे भी बरडीहाँ तक ले जाने को तैयार हो गए।
वहां से 5 कि.मी. की दूरी मैंने पैदल ही तय करने की सोची। मैं बहुत उत्साहित था क्योंकि बहुत दिनों बाद गांव जा रहा था। मेरे गांव के पड़ोसी गांव सिकरियाँ में हर गर्मी के वक़्त नाटक का पाठ बहुत ही मनमोहक होता था। आस पड़ोस के लोग रोज देखने आते थे। 12 रातों का यह कार्यक्रम होता था।

 हम तीनों ट्रेक्टर पे बैठ गए और ट्रेक्टर अपनी मंजिल की तरफ बढ़ गयी। आज मन में अजीब सी बेचैनी हो रही थी, ऐसा लग रहा था जैसे कुछ होने वाला है। दिल और दिमाग पहली बार एक मत नहीं थे। एक तरफ जहां दिल इतनी रात गए घर जाने कि जगह स्टेशन पर रुकने के लिए कह रहा था तो वहीं दूसरी तरफ दिमाग किसी भी तरह आज रात को ही गाँव जाने कि बात पर जोर दे रहा था। मैंने सब आने वाले समय के साथ छोड़ दिया था लेकिन मुझे नहीं पता था कि आगे चलकर यही मेरी सबसे बड़ी भूल बन जाएगी। 

सवा घण्टे में लगभग पौने नौ बजे के आस पास मैं बरडीहाँ चौक पर उतरा। मैने उन लोगों को विदा किया और धन्यवाद कर के मैं अपने गांव की तरफ बढ़ चला। तभी मेरे दिल मे ख्याल आया, “अरे! क्यों ना मैं उस ट्रेक्टर वाले को बोलूं की वह मुझे मेरे गाँव तक ही छोड़ दे, बदले में कुछ ज्यादा पैसे दे दूंगा।” 
लेकिन जब तक मैं उसको बताता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ट्रेक्टर वाला मेरी नजरों से ओझल हो चुका था। वो अपने गंतव्य की तरफ रवाना हो चुका था। उसके इतनी जल्दी वहाँ से चले जाने पर मुझे ताज्जुब हुआ। मैंने देखा कि उस चौक पर मेरे सिवा कोई भी मौजूद नहीं था। अपने आप को वहाँ अकेला देखकर मेरे जिस्म में एक ठंडी लहर दौड़ गई। 

मेरे दिल मे आज अजीब सी बैचैनी हो रही थी। कुत्तों के भौंकने की आवाज से मेरे कदम दर कदम बढ़ाने के साथ साथ और तेज होती जा रही थी। मैंने अपने डर को नियंत्रण करने के लिए लकड़ी को उठाया, जो कि सड़क के किनारे इतनी रात को बेजान सी पड़ी थी। अब मेरे अन्दर कुछ साहस आया कि मैं अब अकेला नहीं था। मुझे एक साथी मिल गया था जो मेरी हिम्मत बढ़ा रहा था। छड़ी ने वास्तव में मेरा आत्मविश्वास बढ़ा दिया था, जिसके फलस्वरूप मेरे कदम और तेज हो गए थे। 
चाँदनी रात थी तो मुझे रास्ते से जाने में कोई तकलीफ भी महसूस नही हो रही थी। हवाओं की सरसराहट से पेड़ो पर पत्तियां रात में अजीब सी आवाजे पैदा कर रहीं थी। उन आवाजों से मन कहीं न कहीं ख़ौफ़ को उजगार कर रही थी। अकेले होने का सबसे अजीब तब लगता है जब मन मे बहुत सारे काल्पनिक ख्यालो को जन्म देने लगी है। मन मे अजीब अजीब से ख्याल आ रहे थे। हिम्मत होते हुए भी उस आवाज की तरफ देखने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। मैं इन छोटी मोटी घटनाओ को दरकिनार करते हुए आगे बढ़ते जा रहा था, लेकिन मुझे क्या पता था कि सबसे बड़ी चूनौती तो मेरा रास्ते मे इंतजार कर रही थी। मैं लगभग 15 मिनट ही चला था कि अचानक से मौसम में परिवर्तन महसूस किया। हवाएं अब सर्द हो चुकीं थी। मुझे हल्की ठंड का एहसास हुआ।

सवा नौ हो चला है तो इस वक़्त गांव में ठंड लगती होगी। लेकिन मैं जैसे ही कुछ कदम चला था कि अचानक मैं अपना संतुलन खो बैठा औऱ सड़क के किनारे किसी खेत में जा गिरा। मैं बिल्कुल सहम सा गया कि ये अचनाक ऐसा कैसे हो सकता है। मेरी कुछ भी समझ नही आ रहा था। अचानक गिरने की वजह से मेरे दाईं टांग के घुटने पर चोट आई थी। तभी मैंने अपने दाईं हाथ के नीचे कुछ मुलायम सा महसूस किया। हाथ उठाकर मैंने सूंघा तो अजीब सी बदबू आई। ऐसी बदबू जैसे कि तुरन्त उल्टी कर दूं। मैंने अपने आप को संभालते हुए अपने बैग से टॉर्च निकाल कर देखा तो मैं जोर से चीख पड़ा।
चीख इतनी तेज थी कि जो आस पास के गांव में जो कुत्ते खामोश थे, वो भौं भौं कर के गुर्राने लगे। मैंने अपने वहम को दूर करने के लिए दुबारा वहां टॉर्च से प्रकाश कर के देखा तो हस्तप्रभ रह गया। मेरे हाथ बिल्कुल सुर्ख लाल था। मेरे पंजे में खून ही खून लगा हुआ था। तभी मेरी नजर वहां मरी हुई बिल्ली पड़ी जिसकी खोपड़ी ही नहीं थी। मेरे हाथ में खून लग गया था और वो खून उसी बिल्ली की थी। मेरा दिल अब जोरों से धड़कने लगा था। मेरे दिमाग ने मेरे दिल को एक संकेत दिया कि अब कुछ ऐसा होने वाला है जिसकी परिकल्पना मैंने किसी सपने में भी नहीं कि थी। 

मेरे बदन में सुरसुरी सी दौड़ गयी। मैं बिल्कुल विचलित सा हो उठा कि आखिर इस हालात पर नियंत्रण कैसे किया जाए। मरी हुई बिल्ली तक तो ठीक था परन्तु उस बिल्ली कि सर उसके धड़ पर मौजूद ही नहीं थी। मैं सोचने लगा आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? फिर काफी देर तक तर्क वितर्क करने के बाद मैंने सोचा कि शायद कुत्ते या कोई जंगली जानवर उसका सिर खा गए होंगे। फिर मैंने पीछे टॉर्च से प्रकाश कर के सड़क पर देखा तो वहां एक गड्ढा था। जो पांव के नीचे अचानक आ जाने के कारण मैं संतुलन खो बैठा था। मैने अपने आपको दिलासा दिया कि इन सबकी वजह वो गड्ढा ही था, ना अचानक मेरा पैर पड़ता न ही मैं उस बिल्ली पर गिरता। लेकिन किसे पता था कि ये घटना तो आने वाली अनहोनी का सूचक था।
मैं इन सब बातों को भुलाकर आगे बढ़ने लगा। मुश्किल से कुछ दूर चला ही था कि मैंने खेत की तरफ से एक इन्सान को सड़क की तरफ आते देखा। मैं पूरी तरह विचलित हो उठा और मन ही मन बोला "भला इतनी रात को कोई खेत मे क्या कर सकता है। वो भी अकेले।" मेरे कदम अपने आप ही रुक गए और मैं चाह कर भी अपने कदम आगे नहीं बढ़ा पा रहा था। कुछ ही क्षण में वो इंसान मेरे बिल्कुल सामने था।

मेरे अंदर इतनी साहस नहीं थी कि मैं कुछ कह पाऊँ। तभी अचानक वो मुझे देख कर हँस पड़ा और बोला, “अरे नीतीश बाबू कैसे हो? इतनी रात कहाँ से आ रहे हो?”
मैंने टॉर्च उस व्यक्ति के मुख पर डाला तो जान में जान आई। वो व्यक्ति जिसने मेरी सिट्टी पिट्टी गुम कर दी थी वो सतीश भईया थे, जो हमारे ही गाँव के रहने वाले थे। सतीश भईया का घर हमारे घर के सामने ही था। मैंने उनको हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और बोला, "भइया वो ट्रैन विलम्ब हो गई थी तो जैसे तैसे कर के यहां तक पहुँचा हूँ। लेकिन आप इतनी रात को यहां क्या कर रहे हो?"
मेरी इस बात को सुनकर वो मुस्कुरा दिए और बोले, "अरे गर्मी का महीना है, आजकल नहर में पानी कम है। मैं अपने नहर से खेत मे पानी डालने के लिए उपाय करने गया था।"
"इतनी रात में" मैंने तपाक से कहा।

"अरे दिन में बहुत गर्मी होती है और नहर में पानी का स्तर कम होने की वजह से सभी के खेतों में जल आपूर्ति होना मुश्किल रहता है।" उन्होंने जवाब दिया।
मैं बोला, "चलिए सही हुआ कुछ दूर के लिए सफर का सहारा तो बनेंगे। लेकिन आपको नहीं लगता कि इस सुनसान रात में अकेले नहीं आना चाहिए, किसी को तो साथ....!"
"अरे काहे का डर। हम गांव के लोग किसी से नहीं डरते। हमे रोज की आदत है। छोड़ो ये सब और बताओ पढ़ाई कैसी चल रही है और गांव में कितने दिनों तक रहने वाले हो इस बार?" मेरी बातों को बीच मे ही काटकर वो बोल पड़े थे।
"20 दिन तक तो एकदम फ्री हूँ, लेकिन इन छुट्टियों में कहीं नही जाने वाला, इस वर्ष भी नाटक का आनंद लेना है।" मैंने उन्हें जवाब दिया।
सतीश भइया बोले, “हाँ हाँ क्यों नहीं तुम्हारा गांव है जो करना है करो, भला तुम्हे कौन मना कर सकता है।”

उनकी बात सुनकर मैं बोला, “अब तो निशि स्कूल भी जाने लगी होगा क्यों भईया?”
मेरी बात सुनकर वो थोड़े मायूस से दिखे मानो जैसे किसी गहरी सोच में डूब गए हों। उन्हें इस तरह ख्यालों में डूब देख मैंने दुबारा बात करने की कोशिश करते हुए कहा, “क्या हुआ भईया? मेरी गुड़ियारानी निशि ठीक तो हैं ना?”
वो गंभीर मुद्रा में बोले, “अरे तुम उसके पापा नहीं हो लेकिन चाचा तो हो। अभी तो निशि चार साल की ही हुई है लेकिन वह हमेशा पूछती रहती है कि सतीश चाचा कब आएंगे? जब तक तुम हो उसको भला क्या होने वाला? अब आ ही गये हो तो उसका भी ख्याल अच्छे से रखना।” ये कहते ही वो हंस पड़े और मैं भी उस हंसी में शामिल हो गया था।
आज सतीश भईया की बातें कुछ अजीब सी लग रहीं थी जैसे वह मुझसे कुछ छिपाने की कोशिश कर रहे हों। मैंने सोचा क्या पता उन्हे कुछ निजी परेशानी हो इसलिए मैंने उन्हें टोकना मुनासिब नहीं समझा। बातों बातों में सफर का पता ही नही लगा।

“भईया देखिये हमलोग कितने जल्दी घर भी आ गए।" मैंने यह कहकर अपने घर का मुख्य दरवाजे को खटखटाया। दरवाजे को खटखटाने के बाद मैंने जैसे पीछे पलटकर देखा तो सतीश भईया वहाँ नहीं थे। मुझे लगा कि मुझे घर तक सुरक्षित पहुंचाने के बाद सतीश भईया भी अपने घर की तरफ चले गए होंगे। 
रात्रि के 10:30 बज रहे थे। इस वक़्त पूरा गांव गहन निद्रा में होता है। थोड़ी देर में मेरे बड़े दादा जी ने दरवाजा खोला और मैंने आगे बढ़ कर उनके चरण स्पर्श किए। दादा जी बोले, "बहुत देर हो गए तुम्हे आते आते। कोई तकलीफ तो नहीं हुई रास्ते मे?"
मैने फिर वही ट्रैन विलम्ब से आने वाली बात उन्हें बताई और अपना सामान ले कर घर के अंदर जाने लगा तभी वो बोले, "तुम अभी बाहर किस से बातें कर रहे थे?
"अरे वो...वो सतीश भईया थे। वो मुझे रास्ते में मिले थे। मुझे यहाँ छोड़ने के बाद घर चले गए।" 
मेरे यह बोलते ही पता नहीं दादा जी मुझे इतने गौर से क्यों देखने लगे और मुख्य दरवाजे को बंद करते हुए बुलंद आवाज में बोले, “प... पागल हो क्या?”
मुझे उनका इस तरह से कहना अजीब लगा मैंने उसने कहा, “क्या हुआ दादा जी?”
वो सख्त आवाज में बोले, "जाओ जाओ अपना सामान ले कर अंदर जाओ।"
मुझे उनका यह बर्ताव अजीब लग रहा था। इस से पहले उन्होंने मुझसे इस तरह कभी कुछ कहना तो दूर डांटा भी नहीं था। मेरा मन आशंकित हो चला था। मेरे दिमाग में तरह-तरह के खयाल पनपने लगे थे। मैं एक बार फिर से उलझ गया था जिसका जवाब मुझे खुद तलाशना था। 

मुझे पहले लगा कि वो मेरे इतने विलम्ब में आने से खफा हैं लेकिन अगले पल ही समझ आ गया कि इसके पीछे की वजह क्या है? सतीश भईया पड़ोसी तो थे लेकिन उनके पापा और मेरे दादा जी में आपस मे नही बनती थी। इसके पीछे की वजह थी शराब। सतीश के पापा हमेशा नशे में धुत रहते थे। मैं मुस्कुरा कर घर के अंदर चला गया।
चिड़ियों की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ रही थी। सूरज की किरण खिड़की से होते हुए मेरे चहरे पर आ रही थी। खिड़की से होते हुए हवाएं कमरे के अंदर आ रही थी जो अपने साथ गाँव की मिट्टी की भीनी भीनी खुशबू मुझ तक ला रही थी। मैं मन ही मन बोल पड़ा "वाह यही तो खासियत है गांव की। भला कोई अपने गांव की मिट्टी से कब तक दूर रह सकता है। मैंने उठ कर जैसे ही अंगड़ाई ली वैसे ही मुझे एक सुगंधित खुसबू का एहसास हुआ, जो कि बालों में लगाने वाले गजरे की थी। अगले ही पल इस राज से भी पर्दा उठा गया। भाभी ट्रे में चाय ले कर दाखिल हुईं थी। उन्होंने मेरा अभिवादन स्वीकार्य किया और कहा, "लगता है आपको आने में बहुत विलम्ब हो गया था।"
"आप जो आई हैं नहीं स्टेशन लेने तो ट्रैन ने भी लेट कर दिया।"
मेरे यह कहते ही दोनो हंस पड़े। फिर भाभी बोलीं, "बाते बनाना तो कोई आप से सीखे। चलिए जल्दी चाय पी कर हाथ मुंह धो लीजिए नास्ता भी बन कर तैयार है।" मैंने मुस्कुरा कर सिर हिला कर हामी भर दी, और वो चाय सामने मेज ओर रख कर बाहर चली गईं। थोड़ी देर मैं मैंने भी अपनी चाय खत्म की और बाहर आ गया।

घर में सभी सदस्यों से मिलने के बाद में दैनिक जीवन के आवश्यक कार्यों को निपटाने लगा। मैंने अपने बैग से तौलिया, चड्डी और बनियान निकाले और सतीश भईया के घर की तरफ चल पड़ा। हमारे गांव के दूसरे छोर पर ही नहर है। मैं जब भी गांव आता था तो हमेशा नहर में ही नहाने जाता था। सतीश भईया ने ही मुझे उस नहर में तैरना सिखाया था। मैं मन मे प्रसन्नता के भाव लिए जा रहा था। 
जैसे ही सतीश भईया के घर के दरवाजे के निकट पहुँचा वहाँ भाभी मिल गयी। मैंने उनको भी प्रणाम किया और बोला, “किधर हैं सतीश भईया? अभी उठे नहीं क्या?"
जो भाभी अभी अभी मुझे देखकर मुस्कुरा रहीं थी वो एकदम से चुप हो गईं। मैंने कहा, "कल रात वो भी देर से घर आए थे और वो इसी वजह से अभी तक नहीं उठे होंगे, बोलो ना भाभी, मैं सच कह रहा हूँ ना? अच्छा चलो मैं खुद उनको उठता हूँ।" यह कहकर मैं उनके कमरे की तरफ बढ़ चला। जैसे ही मैंने उनके कमरे के दरवाजे को खोल कर पर्दे को हटाकर अंदर घूंसा, मेरी चीख निकल गयी। मैंने अपने कपड़े वहीं पटके और वहां से भाग चला। उस वक़्त अपनी इस हालात को बयां करने बहुत मुश्किल हो रहा था। मैं आंखों में आंशू लिए घर मे दौड़ते दौड़ते अपने रूम में चल गया और अंदर से छिटकनी लगा दी।

मैं कमरे के अंदर बेतहाशा रो रहा था। मेरे अचनाक इस तरह के बर्ताव से सभी घर मे चकित थे। मेरा बड़ा भाई हरीश ने दरवाजे को जोर जोर से थप थपाया और बोला, "क्या हुआ नीतीश। अचानक ऐसा क्या हो गया जो तुम रोने लगे?" सभी ने दरवाजे पर भीड़ लग दी थी। मैं अंदर से बिल्कुल सहम सा गया था। मेरी समझ मे कुछ भी नही आ रहा था कि आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने थोड़ी देर में अपनी भावनाओं पर नियंत्रण किया औऱ दरवाजे को खोल दिया। मेरे दरवाजे खोलते ही सभी एक साथ अंदर आ गए। सभी एक साथ बोलने लगे, “अरे बताओगे भी क्या हुआ? ऐसा क्या हुआ जो तुम रोने लगे गए?”
मैंने सिसकते हुए कहा, "वो...वो सतीश भईया के घर गया था, मैंने जैसे ही उनके कमरे का दरवाजा खोला तो......!"

ये कहकर मैं और ज्यादा बिलख बिलख कर रोने लगा। सभी मेरे इस व्यवहार को देख कर चकित थे।
तभी मेरे पिता जी ने जोर से कहा, "अरे बताओ भी क्या देखा तुमने वहां?"
मैं बोला- "मैंने देखा कि सतीश भईया की एक बड़ी फ़ोटो थी जिसमे हार चढ़ाया हुआ था और उनके तस्वीर के पास धूप और अगरबत्तियां जल रही थी। ये कब और कैसे हुआ? आप लोगों ने मुझे बताया क्यो नहीं?"
मेरा बड़ा भाई हरीश बोला, "यह बात 7 दिन पहले की ही है और तब तुम्हारी स्नातक में द्वितीय वर्ष की परीक्षा चल रही थी।"
"तो आप लोगों ने बताया क्यों नहीं?" यह कहकर मैं और रूँवाशा हो गया। इस बार आवाज मेरे पिता जी की थी, "बेटा जो होना था वो तो हो चुका, हम नहीं चाहते थे कि परीक्षा के वक्त तुम्हे यह खबर बता कर तुम्हे विचलित करें।"
तभी मैं जोर से बोला, "नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता। कल ही तो मैं उनसे मिला और उन्होंने ही तो मुझे कल रात घर तक छोड़ा।"
"ये सुबह सुबह क्या बहकी बहकी बातें कर रहे हो। होश में तो हो तुम?" इस बार मेरी माता जी ने कहा था।
"मेरा विश्वास करो माँ मुझे वो कल रात गांव से कुछ दूर पहले मिले थे। वो नहर से पानी का रास्ता खेत मे बनाने गए थे। मैं उनसे बाते करते करते ही यहां घर तक आया। वो मुझे घर तक छोड़ कर अपने घर की तरफ निकल गए थे।"
मेरी इस बातों से सभी आश्चर्य चकित थे कि भला ऐसा कैसे हो सकता है। किसी को मेरी बातों और विश्वास नहीं हो रहा था। किसी को यह भी लग रहा था कि इतना गंदा मजाक तो ये कर नहीं सकता। लेकिन उन्होंने ये बात भी मानी की ये बच्चा तो है नहीं हो सकता है कहीं न कहीं उसकी बातों में सच्चाई हो। भला सतीश ने कोई नुकसान भी नहीं पहुंचाया, क्योकिं वह इसे छोटे भाई की तरह मानता था।

तभी मेरे दादा जी ने कहा- "हम्म हो सकता है कि यह सही कह रहा हो क्योकिं मैं कल रात बाहर आंगन में खाट पर सोया था। जब यह आया तो मैंने दो लोगों की आवाज सुनी तो थी, लेकिन यह कहना मुश्किल होगा कि वो दूसरा बन्दा सतीश ही था। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं निकलता की हम इसकी बातों को पूरी तरह से नकार दें।" उनके इस बात ने सबको स्तब्ध कर दिया था।
दादा जी की इन बातों से अब सबको काफी हद तक प्रमाण भी मिल गया था कि मैंने कल सतीश भईया की आत्मा से मुलाकात की है। अभी के सब बातें चल ही रही थी कि मेरी माँ बोल पड़ी, "ह्म्म्म अभी सतीश को गुजरे मात्र 7 दिन हो रहे हैं। क्या पता उसकी आत्मा अभी भटक रही हो, जब तक तेरहवीं नहीं हो जाती तब तक अपने किसी न किसी करीबी को जरूर दिखेगा।"
अब तक सभी जो खामोश हो कर खड़े थे, अब उनके अंदर डर का भाव घर चुका था। यदि परिवार का कोई भी सदस्य ज़िंदा रहे तो वह अत्यन्त प्रिय होता है लेकिन उसके मौत के बाद कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि उसके दर्शन आत्मा के रूप में हों। मेरा तो दिमाग सुन्न पड़ गया था कि मैं सतीश भईया के इस दुनिया से जाने का दुख मनाऊँ या उनसे कल मुलाकात हुई उस बात से खुद को तसल्ली दूँ। आज भी मैं जब उस घटना को याद करता हूँ कि क्या सच मे कोई मरने के बाद भी मिल सकता है तो एकदम सिहर सा जाता हूँ।
समाप्त 

घोस्ट हंटर

घोस्ट हंटर (भाग-1)






आज के दौर में जब विज्ञान की पहुंच सामान्य जन-जीवन तक है, फिर भी लोगों का पारलौकिक शक्तियों पर यकीन करना थोड़ा हास्यास्पद लगता है। ऐसा क्या कारण है जो इंसानी मस्तिष्क भूत-प्रेत, आत्माओं या बुरी शक्तियों जैसी बातों को सच मान बैठता है? यह बातें सिर्फ मान्यताओं पर आधारित है जिन पर लोग परंपरागत तौर पर यकीन करते आए हैं। इनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

भूत-प्रेत या नकारात्मक ऊर्जा एक अदृश्य शक्ति होती है जो कभी भी कहीं भी हो सकती है। इन चीजों को हम देख नहीं सकते लेकिन कुछ ऐसे संकेत हैं जो आपको यह बता देती है कि आपका घर और आपके आस-पास नकारात्मक ऊर्जा सक्रिय है। इन्हें पहचानने के लिए आप काफी हद तक मशीनी तकनीकी कि सहायता ले सकते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि यह शत प्रतिशत कारगर हो। 

मेरा नाम कल्पित जोशी है 5”3 कि औसतन हाइट, रंग गेहुवाँ, छरहरी काया वाला इंसान हूँ। मैने पिछले 7 सालों में मैंने अपने अद्वितीय काम कि शैली की वजह से एक अलग पहचान बना लिया है। सभी ने मुझे टीवी के माध्यम से दिल में जगह दी थी। मेरे शोज कई न्यूज के स्पेशल बुलेटिन में अपनी ज्ञान का परचम लहरा चुके थे। 

मैंने कई जगह भूत प्रेत के रहस्यों से पर्दे उठाए थे। दरअसल यही मेरा पेशा है जिसकी वजह से लोग मेरे नाम से ही मेरे काम को जानते हैँ। मैं पैरानॉर्मल एक्टिविटी इनवेस्टिगेटर का काम काफी वक़्त से कर रहा हूँ। 

जहां लोग दिन में भी नहीं जाते मैं वहां रातों में रहता हूं। अच्छा लगता है, जब आप किसी ऐसे की मदद कर पाएं, जिसके पास इच्छाएं तो हैं लेकिन शरीर नहीं। आत्माओं की खोज करना (ghost hunting) करना ही मेरा मुख्य काम होता है। 

मैने 2013 में अमेरिका के टेक्सास शहर से “पैरानॉर्मल एक्टिविटी इनवेस्टिगेटर का कोर्स पूर्ण किया। इसके बाद मैने आसाम के मायोंग नामक जगह में अपना ऑफिस बनाया और कुछ लोगों के साथ मिलकर इंडियन पैरानॉर्मल एक्टिविटी इनवेस्टिगेटर (IPAI) नाम से एक छोटी सी टीम बनाई। 

मैंने अपनी टीम के तीन हिस्से किए, हर टीम में तीन सदस्य रखे। सभी टीम के अलग अलग काम मैने बाँट दिए। पहली टीम A इंटरनेट पर लोगों कि शिकायतें सुनती हैँ। ट्विटर, फेसबुक, ई-मेल और चिट्ठियों के ज़रिये से मिली हुई इनफार्मेशन को क्रॉस चेक करते हैँ। फिर उसकी पुष्टि होने बाद उन लोगों से या उस पत्ते पर रहने वाले लोगों से मोबाईल के मध्याम से सम्पर्क किया जाता है। कहने का मतलब यह है कि इनका काम केवल पैरानोर्मल ऐक्टिविटी कि इनफार्मेशन लेना और क्रॉस चेक करना ही होता है। यह सारा काम यहीं मायोंग के ऑफिस से ही होता है। 

हमारी दूसरी टीम B में भी तीन ही सदस्य है और यहीं मायोंग के इसी ऑफिस से ही काम करती है। इनका मुख्य कार्य काला जादू और नकारात्मक ताकतों की जांच-पड़ताल करना हैं। अपनी सेवा देने के साथ ही लोगों से मिल कर उनकी परेशानियों को सुनती है। इस टीम का काम आत्माओं और इंसानों के बीच संपर्क स्थापित कर एक शांतिपूर्ण वातावरण का निर्माण करना है। पैरानॉर्मल गतिविधियों को सुलझाने के अलावा ये लोग योग, ध्यान सहित पूजा-पाठ पर जोर देते हैं। हालात बिगड़ने की स्थिति में ये लोग तीसरी टीम C की मदद लेते हैं। 

हमारी तीसरी टीम C में ही मैं, कल्पित जोशी काम करता हूँ और टीम का हेड  हूँ। हमारी टीम इलेक्ट्रॉनिक गैजेट की मदद से काम करने वाली ये विंग पैरानॉर्मल गतिविधियों को रिकॉर्ड कर रहस्य का उजागर करती है। 

इंडियन पैरानॉर्मल एक्टिविटी इनवेस्टिगेटर (IPAI) के अधीन काम करने वाले इस संगठन के सदस्य आधुनिक गैजेट्स से लैस हैं। हम लोग वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तरीके से भूत-प्रेत का पता लगाने के साथ ही लोगों को इस ऐसे कई कोर्स करवाते हैं, जिससे वो किसी अप्रत्याशित घटना से खुद का बचाव कर सकें। 

आप मेरी इस टीम C को मिस्ट्री मशीन का इंडियन वर्जन भी कह सकते हैं।  कई रहस्यों को सुलझाने के अलावा ये सोसाइटी कई स्कूल, घर और जगहों से भूतों को भगा कर उन्हें सुरक्षित कर चुकी है। मेरा और मेरी टीम का सबसे main work है आत्माओं की खोज (ghost hunting) करना। इंडियन पैरानॉर्मल एक्टिविटी इनवेस्टिगेटर में काम करते हुए हमें आए दिन कई दफे नए challenges से गुजरने होते हैँ। आत्माएं अपने होने का कोई न कोई संकेत देती हैं। जैसे फुल बैटरी दिखाता मोबाइल एकदम से लो हो जाए, कैमरा खराब हो जाए, लाइट बंद हो जाए या खटखटाने या दूसरी तरह की आवाजें होने लगें। इन संकेतों को पकड़ने के लिए हमें कई उपकरणों का सटीक इस्तेमाल करना आना चाहिए। 

हमारे पास कई उपकरण हैं जो घोस्ट डिटेक्टर का काम करते हैं। मिसाल के तौर पर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड डिटेक्टर। इससे इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फ्रीक्वेंसी चेक करते हैं। ये फ्रीक्वेंसी उन तमाम जगहों पर होती है, जहां भी मोबाइल टावर या स्ट्रॉग वाईफाई राउटर या सड़क के नीचे तार जा रहे हों। बस फर्क ये है कि उन जगहों पर फ्रीक्वेंसी स्थिर होती है, जबकि जहां आत्माएं हों, वहां ये बदलती रहती है। बार-बार ब्लिंक करती है। हम हवा में सवाल करते हैं लेकिन डिजिटल वॉइस रिकॉर्डर में जवाब कैद हो जाता है। अक्सर ये फुसफुसाहट होती है। कई बार गालियां, चीखें और रोने की आवाज भी आती है। नाइट विजन फुल स्पेक्ट्रम कैमरा, कंपास और वॉकीटॉकी होना जरूरी है। हर चीज फुली चार्ज्ड होनी चाहिए क्योंकि उस जगह अगर हकीकत में पैरानॉर्मल चीजें हैं तो वो सबसे पहले बैटरी ही खाएंगी।”


 “साल 2016 की बात है। तब तक 15 से ज्यादा मामलों पर काम कर चुका था। कहीं कुछ नहीं मिला। यकीन था कि भूत-प्रेत बेकार की बात है। तभी देहरादून के किसी स्कूल में जाने का मौका मिला। दरअसल वह एक काफी पुराना और प्रसिद्ध स्कूल था, उसका नाम सैन्ट जोसेफ अकैडमी था। उसी स्कूल में हमारी टीम को बुलाया गया था। हमारी टीम साजो-सामान के साथ वहां पहुंची। हम एक TV शो का हिस्सा थे। मेरी टीम तकनीकी सामानों को सेटअप करने में लगी थी। मैंने तकनीकी चीजें चेक कीं और उस स्कूल के प्रिन्सपल से मिलने चला गया। 

प्रिन्सपल ने मुझे काम शुरू करने से पहले काफी अहम जानकारी दी कि गर्मी कि छुट्टियों कि वजह से स्कूल बंद हो गया था और जब स्कूल खुला तो 2 nd क्लास में पढ़ने वाला 7 साल का बच्चा वहाँ मृत पाया गया था। 

उस बच्चे के बारे में सभी जानते थे कि वह किडनेप हो गया है क्योंकि उसके पिता एक अच्छे बिजनेसमैन थे और उन्हें कुछ दिनों से फिरौती क लिए धमकी भी मिल रही थी। इस वजह से किसी ने भी यह नहीं सोचा कि वह बच्चा स्कूल में ही होगा।

उन्होंने यह भी बताया कि वह ऊपर वाली मंजिल के जिस कमरे में जहां बच्चे की लाश मिली थी वहाँ आए दिन असामान्य घटनाएं घटित हो रहीं थीं। जैसे कभी बच्चों के लंचबॉक्स गायब होने लगे फिर देखते ही देखते कभी किसी का बैग हवा में 2 फुट ऊपर लहराने लगता। इस तरह से हर रोज कुछ ना कुछ अजीब दृश्य देखने को मिलने लगा। 

स्कूल प्रबंधन ने यह decide किया कि यह सभी उसी बच्चे कि आत्मा कि वजह से हो रहा है। उस room को लॉक कर दिया गया। लेकिन उस समस्या का वहीं समाधान नहीं हुआ बल्कि उस बंद कमरे में आए दिन उठा पटक कि आवाज आती रहती थी।”

अगले रोज हम फिर वहां उस स्कूल में पूरी तैयारी के साथ पहुंचे। इस बार हमारी टीम बॉल और खिलौने लेकर गई थी। मैंने जैसे ही दरवाजा खोला और अपने machines & equipment’s के साथ थोड़ी हरकत करने के बाद मैंने कहा कि, “बच्चे यदि तुम वास्तव में इस कमरे में मौजूद हो तो हमें इसका एहसास करवाओ। यकीन मानो हम तुम्हारे नुकसान करने कि मदद से नहीं आए हैं?” 

मेरा ऐसा कहना ही था कि वह बॉल हवा में उछलने लगी और बॉल खेली जाने खिलौने मूव करने लगे।

मैंने बच्चे की आत्मा से बात करने की कोशिश की। जब मैंने investigation किया तो पता चला कि उस बच्चे की भूख प्यास से बड़ी तकलीफ में मौत हुई थी। भूख लगने कि वजह से मौत हुई थी इस वजह से वह बच्चों के लंचबॉक्स खा जाता था। वह उन बच्चों के साथ खेलना चाहता था और इसी वजह से वह उनके बैग्स को हवा में उठाने कि कोशिश करता था।

उसे वहां से जाने के लिए मनाने की कोशिश की लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पूजा-पाठ भी हुआ लेकिन कुछ दिनों बाद फिर एक्टिविटीज शुरू हो गईं। बच्चों की आत्मा अमूमन बड़ी जिद्दी होती है और उतनी ही नासमझ भी। आप जो भी कहें, वो काफी हद तक समझ ही नहीं पाती हैं। 

किसी व्यक्ति कि मृत्यु पूरी उम्र काटने के बाद हो तो वह आत्मा शांत रहती है। उसे कोई लालच नहीं होता और वो अपनी दुनिया में लौट जाती है।”



घोस्ट हंटर (भाग-2)

टीवी पर देखा होगा कि आत्माएं पूरे का पूरा घर हिला देती हैं। इंसानों को उठा-उठाकर पटकती हैं। सिर फोड़ देती हैं, दरअसल वो ऐसा कुछ भी नहीं करती बस वो अपनी मौजूदगी का एहसास करवाती हैं।

घोस्ट हंटिंग या पैरानॉर्मल इन्वेस्टिगेशन विज्ञान पर वो भी एक शानदार experience के साथ कुछ और बातें बताता हूँ। इसके कायदे फिजिक्स, मेटाफिजिक्स पर काम करते हैं। लेकिन तब भी ये इंजीनियरिंग या लेखकी या डॉक्टरी से अलग है। बाकी जगहों पर नाकामयाबी का डर रहता है और इसमें मौत का। जहां आप डरे, डर आपको निगल जाएगा।


पिछले महीने ही मसूरी से एक सॉफ्यवेयर इंजीनियर प्रिया भार्गव का मेल आया। उस मेल में फोन नंबर दिया गया। उनके पति कि मृत्यु heart attack से हुई थी। detail में बात हुई तो समझ आया कि उनकी बेटी कि छत से गिर के मृत्यु हो गई थी और उनकी बेटी रात को अक्सर अपनी मौजूदगी का एहसास करवाती थी। मुझे उन्होंने अकेले ही बुलाया था क्योंकि वह नहीं चाहती थीं कि आस पास या किसी को यह बात पता चले और उनकी बदनामी हो। 

तो मैं फिर से अपनी पूरी तैयारी के साथ उनके घर पहुँच गया। मैने उस रात काफी कोशिश कि लेकिन मुझे इस तरह कि कोई भी हरकत नहीं दिखी। वो महिला भी काफी surprised थीं। मेरी वहाँ से वापसी कि टिकट्स 2 दिन बाद कि थी। तो थक कर मैं ऊपर बने गेस्ट रूम में सोने चल गया। 

मुझे अच्छे तरह से याद है मैं सुबह जैसे ही बाथरूम में गया वहाँ सब कुछ सामान्य था। जब मैं नहा रहा था तो अचानक मुझे लगा जैसे वहाँ मेरे अलावा भी कोई मौजूद है। अचनाक वहाँ का तापमान एकदम से ठंडा हो चला। मैं समझ गया कि यहाँ कुछ अनहोनी होने वाली है। मुझे अक्सर ऐसे हालत में पूर्वाभास हो जाते थे। 

मेरा अंदाज बिल्कुल सही निकला अगले ही पल लाइट झप झप हुई। थोड़ी देर बाद अचानक सारे बल्ब बुझ गए और वहाँ चारों तरफ अंधेरा हो गया। यह सब होने के बावजूद मैंने दिमाग से काम लिया क्योंकि मुझे पता था कि ऐसे हालातों में खुद को कमजोर नहीं करना चाहिए नहीं तो ये हम पर हावी हो जाते हैँ। 

कुछ क्षण में ही वहाँ लाइट आ गई। मेरी नजर जब सामने mirror पर गई तो मेरी आँखें चौंधिया गई, सामने मिरर पर खून कि बूंदों से लिखा था ‘I will kill you Kalpit!’

यह पढ़ते ही मेरी हालत खराब हो गई। मैं कितना बड़ा ही ghost hunter क्यों न रहूँ लेकिन हूँ तो मैं भी एक इंसान ही। मैंने फटाफट अपने कमर पर towel लपेटा और वहाँ से चीखता हुआ भाग खड़ा हुआ। 

मेरी आवाज सुनते ही प्रिया भार्गव भी ऊपर ही दौड़ी चली आ रही थी। मैं सीढ़ी पर उनसे टकरा गया और मेरी towel खुल गई। हम दोनों सीढ़ी से थोड़ी देर तक लुढ़कते रह गए। मैंने उठने कि कोशिश कि तो देखा कि मेरा towel खुल चुका था और टाउल प्रिया भार्गव के नीचे दबा हुआ था। उन्होंने हँसते हुए मेरा टाउल मुझे वापिस किया और मैंने वह झट से लपेट लिया। मुझे बहुत शर्म आ रही थी लेकिन यह सब इतने अचानक से हुआ था कि मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। 

तभी उनकी नजर मेरी गर्दन पर पड़ी। उन्होंने वहाँ हाथ लगाते हुए कहा,

“अरे यह खरोंच के निशान कैसा?” यह कहते ही उन्होंने साड़ी के पल्लू से मेरी गर्दन से वह खून पोंछा तो वे यह देखकर चौंक गई कि नाखून का निशान दिखा। 

मैंने सारी बात उन्हे बाथरूम वाली घटना पूरी तरह से बता दी। उन्होंने मेरी पूरी बात सुनने के बाद कहा, “दरअसल मैं आपसे कुछ बात कहना चाहती हूँ, मुझे उम्मीद है आप बुरा नहीं मानेंगे। actually मैं अपनी बेटी कि मुक्ति करवाने से पहले एक बार उस से बात करना चाहती हूँ या एहसास करना चाहती हूँ।"

मैंने उनकी बातों को सुना फिर मुसकुराते हुए बोला, “मैं पक्के तौर पर तो नहीं कह सकता लेकिन मैं कोशिश जरूर करूंगा।” मेरा यह सकरात्मक जवाब सुनकर वह बहुत खुश हुई। 

दिन के वक़्त मैं खाना खा के लेटे ही था कि मुझे ऐसा एहसास हुआ कि जैसे मेरा कोई गला दबा रहा है। मैंने बहुत कोशिश कि फिर बड़ी मुश्किल से मैं उस बेड से उठा और छत कि तरफ भाग पड़ा। वहाँ काफी देर तक मैं अपना सिर पकड़ कर बैठा रहा। 

जीवन में हर घटना इंसान को कुछ न कुछ जरूर सिखाती है। इस घटना से मुझे यह पता चला कि हम आत्मा/आत्माओं से बात करने कि कोशिश करते है और उसे मनाते हैं कि वो जगह छोड़ दे तो वे बात करती हैं, इशारे देती हैं, इरादे जताती हैं। कई बार खूब कोशिशों के बाद भी वो जाती नहीं हैं। ये अक्सर बच्चों की आत्माएं होती हैं। ऐसे में हम उस प्रॉपर्टी को छोड़ देते हैं। ज्यादातर लोग पूजा-पाठ भी करवाते हैं लेकिन ऐसे मामलों में भी अगर आत्मा का बने रहने का मन है तो वो नहीं जाएगी।

मेरी अगली सुबह कि ही ट्रेन थी तो मुझे जो कुछ भी करना था वो आज कि रात ही करना था। मैंने शाम को ही सारी तैयारी कर ली थी। सारे सेटअप तैयार थे। रात ठीक 12 बजे पूरे कमरे कि lights अचानक ही झप झप होने लगी। मैं प्रिया भार्गव को ले कर उनके छत पर ले गया जहां मैंने अपने आधुनिक मशीन लगाया था। मैंने उन्हे वहाँ एक जगह शांति से बैठने को कहा। 

मैंने उनसे उनकी बच्ची का नाम पूछा तो उन्होंने वंदना बताया। मैंने उस आत्मा से संपर्क साधने कि कोशिश कि और बोला, “वंदना, हम तुमसे बात करना चाहते हैं। यदि तुम हमें सुन सकती हो या देख सकती हो तो हमें जवाब दो।”

मेरा ऐसा कहना था कि अचानक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड डिटेक्टर ने signal रिसीव करने के संकेत दिए। मैंने इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फ्रीक्वेंसी चेक किया। इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड डिटेक्टर उन जगहों पर फ्रीक्वेंसी स्थिर होती है, जबकि जहां आत्माएं हों, वहां ये बदलती रहती है, बार-बार ब्लिंक करती है। मैंने देखा कि बार बार फ्रीक्वेंसी बदल रही थी। वंदना कि आत्मा ने हमें अपनी मौजूदगी का एहसास करवा दिया था। मैं खुश होता हुआ बोला,

“प्रिया जी, वंदना हमारे ही आस पास है आप अपने सवाल उस से पुछ सकती है, लेकिन ध्यान रहे हमारे पास इसके लिए ज्यादा वक़्त नहीं है।”

प्रिया बोली, “बेटी, तुम्हें खोने का मुझे बहुत बड़ा अफसोस है। अब जो हो गया वह बदला तो नहीं जा सकता लेकिन मैं तुम्हें मृत्यु के बाद इस तरह से अशांत रहना और भटकना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। मैं चाहती हूँ कि तुम्हारी सुकून के लिए कोई ऐसा काम करूँ जिसकी वजह से तुम्हें इस भटकने से मुक्ति मिल जाए।”

उनके बोलते ही उस मशीन में फिर से फ्रीक्वेंसी ऊपर नीचे होने लगती है। वंदना कि आत्मा हमें अपना जवाब दे रही थी। मुझे पता था कि इस process में हवा में सवाल किया जाता है, जिसे आम आदमी के सुनने के बस कि बात नहीं थी लेकिन डिजिटल वॉइस रिकॉर्डर में जवाब कैद हो जाता है।

उसकी आवाज डिजिटल वॉइस रिकॉर्डर में कैद हो चुकी थी। मैंने उसे देखने के लिए जैसे ही नाइट विजन फुल स्पेक्ट्रम कैमरा उठाया तो यह देखकर दंग रह गया कि नाइट विजन फुल स्पेक्ट्रम कैमरा और वॉकीटॉकी कि बैटरी खत्म हो चुकी थी। जबकि मैंने यह प्रोसेस करने से पहले सबकी बैटरी फूल कर ली थी। 

मुझे अच्छे से पता था कि हर चीज फुली चार्ज्ड होनी चाहिए क्योंकि उस जगह अगर हकीकत में पैरानॉर्मल चीजें हैं तो वो सबसे पहले बैटरी खाएंगी। आत्माओं की टेंडेंसी होती है एनर्जी खाना। जहां से भी आसानी से मिले, रूह शरीर छोड़ती है तो उनका अलग ठिकाना होता है। कई बार वे अपने उस नए ठिकाने पर जाने को राजी नहीं होतीं। पुरानी जगह, पुराने लोग और पुराने इरादों के साथ बंधी रहती हैं। ऐसे में हम इंसानों को कम तकलीफ होती है, रूहों को ज्यादा।

वे देखती हैं कि हम बढ़िया खा रहे हैं, पहन रहे हैं, घूम रहे हैं, हंस रहे हैं, प्यार कर रहे हैं, पढ़ रहे हैं- वे भी सब करना चाहती हैं लेकिन कर नहीं पातीं। ये बहुत तकलीफ देता है। ऐसे में वो ध्यान खींचना चाहती हैं। बताना चाहती हैं कि वो भी यहां हैं, उनपर भी ध्यान दिया जाए। वे एनर्जी लेकर ताकत जुटाती हैं। दरवाजा खटखटाती हैं, सामान उठापटक करती हैं और आप डर जाते हैं।

तो अब बारी थी वंदना कि आत्मा की आवाज को सुनने कि जिसको हम डिजिटल वॉइस रिकॉर्डर कि मदद से सुनने वाले थे। मैने जैसे ही उस रिकॉर्डर को प्ले किया तो उस बच्ची के रोने की आवाज आई और रोते रोते वह बोल रही थी, “मम्मी, मैं आपके पास आना चाहती हूँ, मुझे यहाँ से ले चलो। यहाँ मेरे साथ कोई खेलने वाला नहीं है।” 

यह आवाज निःसंदेह उसी बच्ची कि थी लेकिन उसकी यह आवाज गूंज रही थी मानो जैसे दो शख्स एक साथ एक साथ बोल रहे हों। उसके इस जवाब को सुनते ही प्रिया के आँखों से आँसू बह चले। मैंने उसे शांत करवाते हुआ कहा,

“देखो हमारे पास ज्यादा वक़्त नहीं है, डिजिटल वॉइस रिकॉर्डर के अलावा सारे मशीनों ने काम करना बंद कर दिया है। जल्दी से बात करो और समझदारी से पूछो कि वह क्या चाहती है?” 

मेरा ऐसा कहते ही प्रिया अगले ही पल बोली,

“बेटी, तुम्हें खोने का मुझे बहुत बड़ा अफसोस है। अब जो हो गया वह बदला तो नहीं जा सकता लेकिन मैं तुम्हें मृत्यु के बाद इस तरह से अशांत रहना और भटकना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। मैं चाहती हूँ कि तुम्हारी सुकून के लिए कोई ऐसा काम करूँ जिसकी वजह से तुम्हें इस भटकने से मुक्ति मिल जाए।”

प्रिया के कहते ही एक बार फिर से डिजिटल वॉइस रिकॉर्डर कि frequency ऊपर नीचे हुई। मतलब साफ साफ जाहिर था कि वंदना ने उस बात का जवाब दिया था। जैसे ही उस रिकॉर्डर को प्ले किया वंदना कि आत्मा का जवाब फिर से आने लगा,

“मम्मी अगर मैं तुम्हारे पास नहीं आ सकती तो तुम मेरे पास आ जाओ! अगर यह भी possible नहीं तो मेरा pink colour वाला टेडी मेरे पास भेज दो। मुझे अकेला नहीं रहना, मुझे अच्छा नहीं लगता अकेले रहना।”

इस बार उसकी आवाज काफी भारी थी जैसे यह कहते वक़्त उसका गला भर आया हो। यह कहते के साथ वो रोने लगी थी। उसे रोते ही डिजिटल वॉइस रिकॉर्डर कि बैटरी भी पूरी तरह खत्म हो गई थी। मैने प्रिया कि तरफ देखते हुए कहा,

“अब हमारी सारी मशीनें ठप्प हो चुकी हैं, बेहतर यही होगा कि हम उसके बताए हुए काम को पूरा करें। अभी रात के ठीक 2 बजे का समय हो रहा है। हमें हर हाल में इसे सूर्यास्त से पहले करना होगा।”

मेरी बात को सुनते ही प्रिया आशंकित भाव से बोली, “लेकिन हमें करना क्या होगा?”

उसकी बात सुनते ही मैं बोला, “हमे नहीं तुम्हें, पहले यह बताओ कि वंदना कि बॉडी कहाँ दफन कि थी।”

प्रिया बोली, “घर के पीछे काफी सालों से हमारा ही एक खाली प्लॉट पड़ा था, उसको वहीं दफनाया है।”

उसकी बात सुनके मैं बोला, “ठीक है मुझे वहाँ ले कर चलो।”

कुछ ही देर में हम जमीन खोदने वाले कुछ औजार के साथ, वहाँ पहुँच चुके थे। वहाँ चारों तरफ भयंकर अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। साख पर बैठे उल्लू के सिवा वहाँ दूर दूर तक हम दोनों के बीच कोई भी मौजूद नहीं था। हाँ वो बात अलग था कि मैने कभी किसी कि लाश के दफन होने के बाद छेड़खानी नहीं कि थी, लेकिन मेरा पेशा ही ऐसा था कि आत्माओं कि मुक्ति के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। आज कि रात मैं कुछ वैसा ही करने वाला था। मैने पिया कि तरफ देखा और बोला,

“मैं जब तक जमीन खोदता हूँ तुम अपने घर में जाओ और वंदना जिस पिंक कलर कि टेडी के साथ खेलती थी उसे ले कर आओ।”

मेरे ऐसे दिशानिर्देश करते ही वह लगभग दौड़ के भाग पड़ी। अगले कुछ ही पलों में वो एक हाथ में लैम्प और दूसरे हाथ में पिंक कलर कि टेडी को ले कर वहाँ आ गई। 

गड्ढा ज्यादा गहरी नहीं थी। उसके आने आने तक मैने वह गड्ढा खोद डाली था जहां वंदना कि बॉडी दफनाई गई थी। प्रिया कि नजर जैसे ही वंदना कि बॉडी पर गई, उसके हाथ से लैम्प और वह पिंक कलर कि टेडी हाथ से छूट जाती है। वह डर के मारे मुझसे यानि कि मिथिलेश गुप्ता से लिपट जाती है। 

कुछ देर तक वह मेरे बदन से ऐसे लिपटी रहती है। मैं उसे समझाने कि कोशिश कि और उसे बोला, “देखो होनी को कोई नहीं टाल सकता और जाने वाले को कोई वापिस नहीं ला सकता। अब जो है ही नहीं उसका अफसोस मत करो और जल्दी से अपने हाथों से पिंक कलर कि टेडी बीयर को उसको सुपुर्द करो।” 

मेरा ऐसा कहते ही उसने वैसा ही किया फिर मैंने फिर उस गड्ढे को मिट्टी से ढक कर उसे हमेशा के लिए बंद कर दिया। अगली सुबह में जब वापिस मायोंग आने लगा तो प्रिया ने मेरे साथ चलने कि इच्छा जाहिर कि, दरअसल उसे मेरा यह काम करने का अंदाज बहुत पसंद आया था। मुझे बताते हुए खुशी हो रहा है कि अब मैंने उनसे शादी कर ली है और वो अब मिसेज जोशी होने के साथ साथ Indian Paranormal Activity Investigator की भी हेड हैं।” 

(देवेन्द्र प्रसाद)


सोमवार, 7 सितंबर 2020

खूनी चण्डालन 🧟‍♀️

🧟  खूनी चण्डालन  🧟


 

मेरी साँसे चढ़ी हुई थी। मैं बेतहाशा भागा जा रहा था। चारों तरफ घनघोर अंधेरा छाया हुआ था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस दिशा में भागूँ। सुखी लंबी घास कि सरसराहट गूंजने लगी। झींगुर भी पीछे नहीं रहे। नदी कि तट कि ओर से आ रही मेढकों कि टर्र-टर्राहट में झींगुरों कि आवाजें धीमे और अजीब स्वर में गूंजने लगा।

 

नदी पर बने पुराने लकड़ी के पुल को पार कर मैंने किसी गाँव कि सीमा में प्रवेश कर लिया था। गाँव कि बाहरी सीमा पर टूटी फूटी पुरानी बेजान झोंपड़ी साँझ के प्रकाश में धुंधली स दिख रही थी। चारों और घनघोर सन्नाटा था। मेरी पैरो की आवाज से सन्नाटा भंग होने लगा था। मेरा मन हुआ कि उस झोंपड़ी में जा कर शरण ली जाए और किसी तरह उस शैतान से पीछा छुड़ाया जाए।

 

मैं एक पल के लिए उस जगह पर खड़ा हुआ और अपनी नजरें उस सुनसान इलाके में चारों तरफ घूमा दिया। वहाँ मेरे अलावा कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने उस टूटी बेजान झोंपड़ी में रात गुजारना बेहतर समझा। मेरे कदम उस उस टूटी झोपड़ी कि तरफ बढ़ चली। वह झोपड़ी पुरानी होने कि वजह से उसका दरवाजा सड़ने कि वजह से गल चुका था। मैंने जैसे ही हाथ लगाया वह किसी मिट्टी कि ढेर कि तरह ढह गया।


सायं... सायं...


करता हुआ चमगादड़ का एक झुण्ड फड़फड़ाता हुआ मेरे आस पास गोल गोल चक्कर काटने लगा। मैंने उसे भागने कि कोशिश कि लेकिन मेरी यह कोशिश नाकामयाब रही। तभी मेरे कानों से किसी के सूखे पत्तों के चरचराने कि आवाज आई। मेरी नजर स्वतः ही उस दिशा में घूम गई। मैंने देखा कि कुछ फुट कि दूरी पर ही वह शैतान दबे पाँव इस दिशा में आ रहा था। उसे देखते ही मेरी मुंह से फिर से चीख निकल गई।


          मेरी वह आवाज इतनी तेज थी कि वह वीराना मेरी चीख कि प्रतिध्वनियों से गूंज उठा। मैंने अपने सर पर पैर रखा और उस गाँव कि अंदरूनी सीमा कि तरफ भाग पड़ा। मैं लगातार भागता रहा। मुझे इस बात का एहसास हो चुका था कि आज कि रात मेरी ज़िंदगी कि आखिरी रात थी और अब मेरा जीवित रहना नामुमकिन है। मुझे अपने किए पर पछतावा हो रहा था। मुझे अब अपनी गलती का एहसास हो गया था कि मुझे वैसा नहीं करना चाहिए था। मुझे गाँव के लोगों कि बात मान लेनी चाहिए थी।

 

मुझे डेढ़ घण्टे पहले की बात याद आ गई। मेरा नाम हेमन्त कुमार है और अभी 4 महीने पहले ही मेरी पहली पोस्टिंग बिहार के छपरा नामक जगह पर हुई थी। मैं वहाँ बिजली विभाग में तकनीशियन के पद पर कार्यरत था। चार महीने बाद पहली दफा मुझे अपने गाँव पहरमा जाने का मौका मिला था। मैं बहुत खुश था क्योंकि मैं बहुत दिनों बाद आज गाँव जाने वाला था और मुझे आसानी से 4 दिनों कि छुट्टी मिल गई थी। मेरे गाँव का नाम पहरमा है जो कि छपरा से 125 किलोमीटर कि दूरी पर ही था। मैंने घड़ी में देखा तो रात के साढ़े दस बज रहे थे। खाना बनाकर खाने और बर्तन धोने में मुझे कुछ वक़्त लग गया था जिसकी वजह से इतना वक़्त हो गया था। खैर अपनी मोटर साइकिल थी तो मुझे समय कि उतनी परवाह नहीं थी। मैंने अपनी बजाज पल्सर 135 cc मोटर साइकिल ली और अपने गाँव पहरमा के लिए निकल पड़ा।


मुझे आज ही ऑफिस में किसी ने बताया था कि मेरी गाँव जाने के लिए गंगा नदी पर बहुत बड़ासेतु बना था और दुपहिया वाहन आसानी से आवागमन कर सकती थी। मैंने अपनी मोटर साइकिल उस तरफ ही घुमा ली। मैं जैसे ही उस उस सेतु पर प्रवेश करने वाला ही था कि तभी एक आदमी पता नहीं अचानक कहाँ से आ गया और मेरी मोटर साइकिल को रोकते हुए बोला, “कहाँ जा रहे हो इस वक़्त?”

मैंने उसे जवाब देते हुए कहा, “अरे मैं अपने गाँव जा रहा हूँ लेकिन तुम कौन हो?”

उसने मेरी बात सुनते ही मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, “क्या तुम इस जगह नए हो या तुम्हें पता नहीं?”

मैं बोला, “तुम कहना क्या चाहते हो?“


इस बार उसने अजीब बात कही, ”क्या तुम्हें अपनी ज़िंदगी प्यारी नहीं?”

मैं गुस्से से बोला, “यह क्या अनाप-शनाप बोले जा रहे हो? देखो मुझे देर हो रही है और मुझे गाँव जाने दो।”

मेरा इतना कहना था कि तभी उसने मेरी मोटर साइकिल कि चाभी घुमाकर बंद करते हुए बोला, “इस सेतु का उद्घाटन नहीं हुआ है इसलिए रात को इस रास्ते से तुम नहीं जा सकते?”

“देखो, मुझे गुस्सा ना दिलाओ, मुझे भी इस बात कि खबर है कि दुपहिया वाहन के लिए यह नियम नहीं है वह आसानी से आ रही हैं?”


“बिल्कुल आ जा रहीं है लेकिन...!”

“लेकिन क्या जल्दी बोलो मुझे जाना भी है।”

वह अजनबी फिर बोला, “लेकिन तुम रात के इस वक़्त नहीं जा सकते नहीं तो वो तुम्हें मार डालेगी।”

मैं इस बार घबराते हुए बोला, “वो चण्डालन?”

मैंने इस बार उसे अपनी आंखे दिखाते हुए कहा, “कौन चण्डालन तुम किसकी बात कर रहे हो?”

वह बोला, “लगता है तुम वाकई नए हो और इस सेतु के बारे में कुछ नहीं पता? तो सुनो मैं तुम्हें उसके बारे में बताता हूँ। इस सेतु पर किसी वजह से कुछ समय के लिए रोक लगा दी गई है। फिलहाल निर्माण कार्य पूरी तरह से बंद है। जबकि केवल साइड कि सुरक्षा दीवार बनानी ही बाकी है। इसलिए अभी इस सेतु का उद्घाटन भी नहीं हुआ है और लोगों ने इस पर चोरी छिपकर आवागमन भी शुरू कर दिया है जो कि गलत है।

 

वैसे भी हर सेतु पूरी होने के बाद तब तक अधूरी ही मानी जाती है जब तक उसे किसी मनुष्य कि बलि उस चण्डालन को नहीं दे जाती। ऐसा ना करने पर वो चण्डालन रुष्ट हो जाती है और फिर किसी एक खास जगह पर बिना किसी कारण दुर्घटनाएं आम हो जाती हैं। उन दुर्घटनों कि कोई वजह तलाशने से भी नहीं मिलती है। इसलिए मेरी बात मानो रात को इस वक़्त इस सेतु से जाना अपनी मौत को दावत देने से कम नहीं है।”

 

उसकी बात सुनते ही मैं पहले जोर से हंसा और जब मेरी हंसी शांत हो गई तो मैं उस से बोला, “ग्रामीण इलाकों में ​अशिक्षा और जागरुकता की कमी के चलते लोग आज भी अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। यही कारण है कि पुराने समय से चला आ रही रूढ़ियां उतनी ही जीवंत हैं जितनी पहले हुआ करती थी।

देखो मैं पढ़ा लिखा और एक समझदार युवक हूँ मैं इन ऊल जुलूल बातों को नहीं मानता और ना ही विश्वास करता हूँ। यदि हर सेतु के निर्माण में एक इंसान कि बलि दी जाने लगे तो तुम्हारे हिसाब से दुनिया में लाखों लोग रोज इसी वजह से मरते होंगे।


चल हट मुझे जाने दे मुझे, अपनी चण्डालन को कह देना कि जा रहा हूँ मैं दम है तो रोक के दिखाए।”

यह कहते हुए मैंने उसे अपने हाथों से धकेल दिया और वह एक तरफ गिर पड़ा। मैंने अपनी मोटर साइकिल कि चाभी घुमा दी और उसे स्टार्ट कर के आगे बढ़ पड़ा। अभी कुछ दूर चल ही था कि मुझे मौसम में अचानक परिवर्तन महसूस हुआ शायद यह नीचे गंगा नदी के वजह से था। तभी मेरी नजर सेतु के बीचों बीच पड़ी, मैंने देखा कि कोई एक औरत अपने एक हाथ में धारदार हथियार को थामे और दूसरे हाथ में  एक कटोरा पकड़ा हुआ था। उसे इस तरह से देख मेरे दिल में भय घर कर गया। मैं अगले ही पल उस से टकराने वाला था। लेकिन यह तो चमत्कार ही हो गया। मैं उसके शरीर से आर-पार हो गया था। मेरे लिए यह विश्वास करना मुश्किल था। मैंने पीछे पलटकर देखा तो उसके तो पाँव ही नहीं थे। वह हवा में उड़ती हुई मेरी ओर आ रही थी।


तभी अचानक मेरी बाइक फिसली और मैं सेतु पर गिर गया। मेरी मोटर साइकिल उस सेतु से फिसलती हुई गंगा नदी में जा गिरी। वो तो शुक्र था कि मेरे हाथों में कहीं से निर्माणाधीन सरिया आ गया और मैं गंगा नदी में सामने से बच गया। मैंने देखा वह चण्डालन बिल्कुल मेरे सामने थी। उसने अपना धारदार हथियार उठाई और बोली, “तुझे चेतावनी भिजवाई थी लेकिन बावजूद तूने उसके मुझे ललकारा। अब तुझे इस चण्डालन को अपनी बलि देनी ही होगी। तेरी मौत अब इस सेतु के लिए बहुत जरूरी हो गई है।”

उसकी यह बात सुनते ही मुझे विश्वास हो गया कि वह इंसान बिल्कुल सही कह रहा था। मैं अपनी जगह से उठा और अपने प्राण बचाने के लिए बेतहाशा भागे जा रहा था।

 

अब डेढ़ घंटे बाद:-

 

          मैं भागते-भागते अब किसी गाँव में आ गया था। आस पास कुछ घर दिखाई देने लगे थे। मैंने झट से दरवाजों को पीटना शुरू कर दिया। उस घर से किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैंने झट से उस जगह से पलटा और सामने वाले घर का दरवाजा पीटने के लिए आगे बढ़ा तभी मेरे कदम उसी जगह पर जम गए। मैंने देखा कि सामने वाले घर कि छत पर सात उल्लू एक कतार में बैठे हुए थे। मैंने खुद को मानसिक स्तर पर दृढ़ किया और उस घर के दरवाजे को पीटना शुरू कर दिया। मेरा ऐसा करते ही वह सारे उल्लू अजीब सी आवाज करते हुए उस छत से उड़ गए और उस दिशा कि तरफ उड़ गए जिस तरफ से मैं आया था। मैं उस तरफ से आ रही सड़क पर देखा तो चौंक कर रहा गया, वह शैतान एकदम से धीमी छाल में मेरी तरफ ही आ रहा था। वह एकदम से निश्चिंत था मानो जैसे उसे पता था कि उसने अपने शिकार को किसी मकड़ी कि तरह अपने जाले में फंसा लिया हो। मैं अपनी धड़कनों का शोर अब साफ साफ सुन सकता था। मेरे हाथ पाँव कांपने लगे थे। घड़ी के हर बढ़ते पल के साथ मेरी धड़कनों कि रफ्तार बढ़ती जा रही थी।


          मैं भी अब इस शैतान के हाथों मरने वाला था। मुझे अब मरने से कोई बचा नहीं सकता था। पालक झपकते ही वह तीन फूट का शैतान मेरे सामने खड़ा था। उसे अपने सामने देखते ही मैं धरती पर गिर पड़ा। उसकी कर्कश हंसी मेरे कानों में अब चुभने लगी थी। डर के मारे मेरे हाथ पाँव अब फूल गए थे। मेरे अंदर इतनी साहस नहीं थी कि मैं दुबारा अपने पाँव पर खड़ा हो सकूँ फिर भागना तो दूर कि बात थी। वह शैतान धीरे-धीरे नीचे झुका और अब बहुत तेज से हँसने लगा। उसके मुंह से लार टपक कर मेरे चेहरे पर गिर रही थी। मैं एड़ी से चोटी तक एक बार फिर से कांप गया। वह मेरे चेहरे के और करीब आया और झट से उसने अपनी लंबी जीभ मुंह से बाहर निकाल दी। वह अपने जीभ से मेरे चेहरे को चाटने लगा। उसकी जीभ से कोई चिपचिपा तरल पदार्थ निकल रहा था जो कि मेरे पूरे चेहरे पर अब चिपक गई थी।

          अगले ही पल उसने अपना मुंह खोला और उसके चमचमाते नुकीले दाँत देखते ही मेरी एक जोरदार चीख निकल गई।


“नहीं.... sss … कोई बचाओ मुझेssss!”


उस चीख के साथ मेरे आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। ऐसा लगने लगा जैसे कि वह नुकीले दाँत मेरे गर्दन पर चुभने लगे थे। हर गुजरते पल के साथ मैं शून्य में विलीन होता जा रहा था। उस चण्डालन

 ने फिर अपनी धारदार हथियार आसमान में उठाया और खच्चाक से मेरी खोपड़ी धड़ से जुदा कर दी। उसने मेरे खोपड़ी को अपनी मुट्ठी में जकड़ा और उस से एक एक बूंद उस कटोरे में निचोड़ा और वह वहाँ से चली गई।

 

 जब मेरी आंखें खुली तो अपने आसपास बहुत से लोगों का जमावड़ा देखा। सभी मुझे घेर कर खड़े थे। चारों तरफ बहुत तेज उजाला था। उस उजाले कि वजह से मेरी आंखें चौंधिया रही थी। मैंने अपने हाथ को उठने कि कोशिश कि तो देखा वह हिल नहीं पा रही थी। मेरे अंदर डर कि एक ठंडी लहर दौड़ गई। मैं डरते हुए बोला,

“म... मेरे हाथ पाँव क्यों नहीं हिल रहे? क्या मैं म...मर गया हूँ?”

मेरे इतना कहने के बाद भी किसी ने मेरा जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। मैंने खड़े हो कर कहा, “अरे मैं जीवित हूँ मुझे कुछ नहीं हुआ। यह देखो मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ।”

मेरे सारे प्रयास व्यर्थ रहे। अचानक मेरी नजर धरती पर पड़ी तो मेरे होश फाख्ता हो गए। जब मैंने देखा कि मेरा वहाँ धड़ पड़ा हुआ था और उसे से दो फुट कि दूरी पर ही मेरा सिर खून से लथपथ पड़ा हुआ था जिसकी खुली आंखे मेरी तरफ देखती हुई मेरा उपहास उड़ा रही थी।

तभी मेरे कानों में एक आवाज आई, “लो भाई चण्डालन ने इस अमावस कि रात को फिर ले ली एक और बलि। ना जाने कब उस चण्डालन कि इच्छा तृप्त होगी और यह नरसंहार रुकेगा? ना जाने कब उस अधूरे सेतु का काम पूरा होगा?”

मैं वहीं सामने वाले पीपल के पेड़ पर जा कर बैठ गया और इंसान कि बातों को याद करने लगा जब मैंने उस से कहा था, “अपनी चण्डालन को कह देना कि जा रहा हूँ मैं दम है तो रोक के दिखाए।”



*समाप्त*




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