भूत प्रेत का नृत्य
सुनने में बहुत ही अजीब लगता है कि भला भूत-प्रेत भी नाचते हैं क्या? यकीन मानिए मैंने खुद भूत प्रेतों को नाचते हुए देखा है और ये बिल्कुल ही सत्य कथा है।
बात उस समय की है जब मैंने बी.ए. अंतिम वर्ष में था। अप्रैल का अंतिम हफ्ता चल रहा था और अंतिम वर्ष की परीक्षाएं खत्म हो चलीं थी। खुशी इस बात की नहीं थी कि मेरी परीक्षाएँ खत्म हो गयी थीं बल्कि खुशी इस बात की थी कुछ दिनों बाद ही 6 मई को मेरी बड़े भाई की बेटी हुई थी। जिस दिन उसका जन्म हुआ भईया की पदोन्नती भी उसी दिन हुई थी। घर मे खुशी का माहौल था। सभी लक्ष्मी का अवतार मान रहे थे। हमारे गांव से हमारी चाची आई थी। मेरी भतीजी को दो-दो दादियों का प्यार मिल रहा था। मेरी मम्मी नवजात शिशू की देख रेख करती तो चाची पूरे घर का काम संभालती। रसोईघर से ले कर साफ सफाई की ज़िम्मेदारी चाची की ही थी।
मैं भी पूरे दिन अपनी नन्ही सी पारी को लाड प्यार करता रहता था। नए मेहमान के आने के बाद मानो वक़्त का पता ही नही लग रहा था कि कैसे गुजर रहा था। जब हमारी गुड़िया 1 महीने को हो गई तो चाची ने मम्मी से कहा-"दीदी यहां आपलोगो के साथ रहते रहते वक़्त का बिल्कुल पता ही नहीं लगा। वहां गांव में तो दिन काटना बड़ी ही झेल हो जाती थी और रातें तो जैसे काटने को दौड़ती थी। लेकिन अब गांव में भी कुछ दिनों बाद धान की फसल करवानी है। छोटू के पापा वहां अकेले होंगे। अब मुझे लगता है कि मेरे वहां जाने का उचित समय आ गया है।"
मेरी मम्मी बोली-"ठीक है जैसा आप कहिए! कल ही आपकी टिकट्स करवा दूंगी।"
यह सुनकर चाची चेहरे पर थोड़ी मुस्कुराहट लाते हुए बोलीं- "दीदी मैं सोच रही थी कि जब गांव से इतनी दूर देहरादून आ गई गई हूं तो क्यों न अपने मायके कुछ दिन रुक कर उधर से ही निकल जाऊं। क्योकिं उतनी दूर से फिर आना हो नहीं पाता है।" मम्मी ने बहुत ध्यान से उनकी बातों को सुना और बोली- "वो सब तो ठीक है लेकिन देवर जी तो गांव में हैं आप जाएंगी कैसे?"
चाची बोलीं- "मैं सोच रही थी कि टींकू की परीक्षाएं भी खत्म हो चली हैं क्यों न इसको साथ ले जाऊं।"
मैं वहीं खड़ा सारी बाते सुन रहा था। मैं मन ही मन मे बहुत उत्साहित था क्योकिं मैं अपनी मम्मी के मायके (अपने नानागांव) तो बहुत बार गया था लेकिन चाची के मायके कभी नहीं गया था। छोटू (चाची का बेटा) हमेशा छुट्टियों में वहां जाता रहता था और मैं अपने नानागांव चला जाता था। इस बार बहुत अच्छा मौका मिला था। मैं माँ के जवाब का इंतजार कर रहा था। मेरी माँ किसी सोच में डूब गई थी, और उस सवाल का जवाब नहीं दे पाई थ। तब चाची ने दुबारा कहा-" क्या हुआ दीदी? किस सोच में पड़ गए?"
मम्मी ने गम्भीर मुद्रा में जवाब दिया-"हम्म ले जाइए लेकिन जल्दी ही इसे भेज दीजिएगा, क्योकिं यहां भी एक इन्सान हमेशा चाहिए क्योकिं इसके पापा को ड्यूटी से आने में शाम हो जाती है। कम से कम ये घर मे रहेगा तो कुछ आवश्यक सामान की जरूरत महसूस होगी तो तकलीफ न हो हमे।"
मैं अब बहुत खुश था क्योंकि मैंने उसी दिन लिंक एक्सप्रेस में तत्काल में दो टिकट्स कर लिए थे कल की। ट्रैन दिन में 1:30 बजे देहरादून से खुलते हुए कानपुर होते हुए इलाहाबाद तक जाती थी। कानपुर पहुँचने का समय सुबह 4 बजे ही था।
मैं रात को कपड़े प्रेस करने के बाद मैं अपना बैग ले जा कर कमरे में रखने ही जा रहा था कि मैंने देखा माँ थोड़ी परेशान सी थी। थोड़ी देर में वो कमरे में पापा के पास बात करने गई। मैं भी अपने कमरे में बैग रखने चल पड़ा। तभी पिताजी की तेज आवाज सुनकर मैं वहीं दरवाजे पर रुक गया।
"पागल हो क्या? इक्कीसवीं शताब्दी में भी हो कर ऐसी बातें करती हो। कुछ नहीं होगा उसे। वो अब कोई छोटा बच्चा नहीं है। अपने भले बुरे की समझ है उसको।" पिताजी ने तेज आवाज में कहा था। मम्मी घबरा गई और चिंतित स्वर में कहा-" लेकिन है तो बच्चा ही उन रहस्यमयी शक्तियों के सामने वो क्या कर पाएगा।"
पिताजी ने कहा-" अरे मैं सब जानता हूँ, लेकिन वो सब पुरानी बातें है। जब से नरकटियागंज वाले गुरुजी ने घर को रक्षासूत्र में बांधा है, तब से कोई भी घटनाएं घटित नहीं हुई हैं।"
तभी अचानक पिताजी की नजरें मुझ पर पड़ी और बोले-"कौन है वहां? अंदर आ जाओ।"
मेरी यह सब बातें समझ से परे थी। लेकिन उनकी बातों से मुझे कुछ अनहोनी का अंदेशा लगा था। मैंने चुप चाप अपने बैग को रखा और कमरे के बाहर चला आया। मैंने उस वक़्त उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया क्योकिं किसे पता था कि आगे चल कर वही सबसे बड़ी भूल बन जाएगी।
हमलोग वक़्त से रेल्वे स्टेशन आ गए और लिंक एक्सप्रेस पकड़ कर कानपुर रेल्वे स्टेशन पहुँच गए। चाची का मायका वहां से 20 की.मी. दूर कानपुर और विजयनगर के बीच पनकी नामक जगह पड़ता था। वैसे पनकी भी रेलवे स्टेशन है परन्तु वो बहुत छोटा सा स्टेशन है जहां ईक्के-दुक्के एक्सप्रेस गाड़ी रुकती थी। लिंक एक्सप्रेस वहां नही रुकती थी इसलिए हमें कानपुर ही उतरना पड़ा था। वहां ऑटो वाले से बात की नजर वो 180₹ में तैयार हो गया लें जाने को। कानपुर एक भीड़ भाड़ वाला इलाका है। यहां की आबादी अच्छी खासी थी। हमलोग लगभग 40 मिनट में पनकी पहुँच गए।
ऑटो से उतरते मैंने काले गेट के बगल में तख्ती पर पढ़ा सँवरू राम। मुझे नानाजी का नाम आज तक नहीं पता था। मैंने ऑटो से सामान उतारा और चाची के पीछे पीछे हो लिया। घडी में सुबह के 5 बजे का वक़्त हो रहा था। नानी और नानाजी आज बहुत खुश थे। वो लोग सुबह 4 बजे से ही उठकर हमलोगों की राह ताक रहें थे। पहला कारण यह था कि चाची बहुत समय बाद मायके आई थीं और दूसरा यह कि मैं पहली बार वहां आया था। मेरी आव-भगत किसी शहजादे जैसी हो रही थी। मुझे उनलोगों के प्यार में बिल्कुल अपनापन सा ही महसूस हुआ।
मैंने चाय पी और फटाफट फ्रेश होकर नहाने चला गया क्योकि मेरी आदत हमेशा रही है कि मैं अक्सर नहाने के बाद ही नास्ता करता हूँ। नास्ता इतना लजीज बना था कि विश्वास करना मुश्किल था कि नानी 82 वर्ष की आयु में भी इतनी अच्छी कैसे बना लेती है। वो कहते हैं ना कि अगर बनाने वाला दिल से कुछ भी बनाए तो भगवान भी खुद उसकी मदद कर देते हैं। नानी टकटकी लगा कर मुझे खाते हुए देख रही थी और उनके आंखों में आंशू भी छलक रहे थे। आंशू छलकने की मुख्य कारण यह था कि, पहले मामाजी और मामीजी अपने बेटे और बेटी के साथ यहीं रहते थे। परन्तु मामी के झगड़ालू स्वभाव होने के कारण एक दिन बहस इतनी परवान पर चढ़ी की मामी, अपने बच्चों और मामा को बोरिया बिस्तर सहित अपने मायके विजयनगर में ही शिफ्ट हो गयी थी।
सुबह से सारा खाना मेरे मन मुताबित बन रहा था। यात्रा की वजह से मुझे बहुत थकान महसूस हो रही थी। इसकी वजह वहां की गर्मी भी हो सकती थी। कूलर के पास लेटते ही पता ही नही लगा कि मुझे कब नींद आ गई। मैं शाम को 6:30 बजे उठा और फिर स्नैक्स और चाय ने मुझ में फुर्ती जगा दी। चाय पीने के बाद मैं छत पर टहलने चला गया। छत पर जाते ही मैं इधर उधर मुआवना करना शुरू कर दिया। घर से लगभग 20 फ़ीट की दूरी पर ही रेलवे लाइन जा रही थी और पटरी के दूसरी तरफ घना जंगल था। वहां से कोयल की मधुर ध्वनि आ रही थी जो मन को मोह ले रही थी। सूर्य की किरण भी डूबते डूबते आपनी लालिमा बिखेर रही थी।
मैं थोड़ी देर में नीचे आ गया और नाना तथा नानी ने मुझसे चित-परिचित अंदाज में मेरे और मेरे कैरियर के बारे में विचार विमर्श करने लगे जैसे कि आगे क्या पढ़ना चाहते हो और किस क्षेत्र में मुझे रुचि है। बातों का सिलसिला चलता रहा फिर थोड़ी देर में डिनर के लिए न्योता ले कर नानी आ गई। आज सोमवार का दिन था। खाने में जब मैंने देखा कि गर्मा-गर्म खीर पूरियां बनी है तो अपने आपको रोक न सका और चार चार दाल भरी पूरियां पेल गया। खीर के स्वाद ने तो माँ की याद दिला दी। डिनर करने के बाद में उस कमरे में सोने चले गए जिस रूम में कभी मामा सोया करते थे। सुबह जल्दी उठ कर मैं स्नान करने के बाद नाना के साथ कानपुर का ज़ू (अजायबघर) देखने गया। ज़ू (अजायबघर) पनकी से बहुत दूर था इसलिए हमें आने में दोपहर हो गई थी।
शाम को जब डिनर में मैंने बटर चिकन देखा तो मेरे मुंह मे पानी आ गया। चाची को पता था कि मुझे बटर चिकन बेहद पसन्द है शायद उन्होंने ही नानाजी से कह कर चिकन मंगवाया होगा और नानी के साथ मिलकर बनाया होगा। लेकिन मेरी खुशी ज्यादा देर तक लिए नहीं टिक पाई। जैसे ही मैंने मुर्गे की टांग को उठा कर उसका स्वाद लेना चाहा छत पर लगातार "धम्म धम्म" की आवाज आई। हम सभी लोग एक दूसरे का मुंह देख रहे थे, वो इसलिए कि नाना और नानी के साथ और कोई भी व्यक्ति नहीं रहता था तो इस वक़्त छत पर कौन हो सकता है।
मैं यही सोच रहा था। आवाजे बन्द होने का नाम नहीं ले रही थी तो मैंने जैसे ही मुर्गे की टांग थाली में रख कर छत पर जा कर देखना चाहा तो नानी ने मेरा हाथ जोड़ से पकड़ लिया और बोली-"बेटा तुम खाओ आजकल गर्मी बहुत है न तो गर्मी की वजह से कभी छत से ऐसी प्रायः ऐसी आवाजे आती हैं।"
उनके ऐसा कहते ही वास्तव में वो आवाजे जो थोड़ी देर पहले आ रहीं थी अचानक से बंद हो गई। मैं कुछ न कह पाया क्योकिं मेरे सामने लजीज चिकन पड़ा जो मुझे अपनी और आकर्षित कर रहा था। मैंने सब छोड़ कर फिर से जैसे ही मुर्गे की टांग चखने के लिए उठाई ही थी कि फिर से छत पर "धम्म धम्म" की आवाज ने मेरा चिकन से ध्यान तोड़ कर छत की तरफ कर दिया। इस बार आवाज पहले से ज्यादा तेज थी। ऐसा लग रहा था कि छत पर दो लोग से ज्यादा थे और छत पर कोई नृत्य कर रहा है। एक बार फिर मैंने थाली में चिकन का टुकड़ा रख कर छत पर जाने का निर्णय किया।
इस बार जैसे ही उठा था तो नानाजी चीख पड़े-" अरे बेटा इस तरह खाना खाते समय अन्न के सामने से नहीं उठते,अन्न का अपमान होता है और अन्न देवता नाराज हो जाते हैं। रुको मैं देख कर आता हूँ।" यह कहकर वो जिन्ने के सहारे छत पर चले गए। मुझे घोर अचरज हुआ क्योंकि जैसे ही नाना छत ओर गए, आवाज फिर से बन्द हो गयी। लेकिन नाना जैसे ही छत से नीचे आते वही "धम्म धम्म" की आवाजें फिर से आनी शुरू हो जातीं।
ये सिलसिला काफी देर तक चलता रहा। चाची ने नाना को रोक लिया कि अब बार बार ऊपर न जाइए। आइये सभी एक साथ बैठकर खाना खाते हैं। उन सभी का ध्यान मुझ पर केंद्रित था कि किसी तरह मुझे छत पर न जाने दिया जाए। लेकिन मेरी आश्चर्य की सीमा हद तब पर गयी कब देखा मैंने की जैसे ही मेरा खाना खाना समाप्त हुआ वैसे ही वो आवाजें पूरी तरह से बन्द हो गयी थीं।
मुझे लगा कि ह्म्म्म हो सकता है नानाजी सही कह रहे हों कि अत्यधिक गर्मी की वजह से छत रात में चटकने जैसी आवाज करती हो। लेकिन दूसरी तरफ मेरे मन मे डर के भाव भी पैदा कर रहे थे कि अगर गर्मी की वजह से आवाज होती तो जब नाना छत पर गए तो क्यों वो आवाजें आनी बन्द क्यों हो जाती थीं। बिस्तर पर लेटे लेटे इस घटना के मंथन में लगा हुआ था। मेंरी समझ मे कुछ नहीं आ रहा था कि आखिर यह हो क्या रहा था। सोचते सोचते घड़ी में रात के 2 बज गए थे। उन सवालो में उलझे उलझे कब नींद आ गई पता ही नहीं लगा।
सुबह जब चाची उस कमरे मे आईं जहां मैं सोया हुआ था और आकर जब खिड़की से पर्दों को एक तरफ खिसकाया तब तेज धूप मेरी आँखों पर पड़ी और मेरी नींद खुल गई। मैं उठ कर बिस्तर पर बैठ कर अंगड़ाई ले ही रह था तो चाची बोली-"बेटा जल्दी से नहा धो कर तैयार हो जाओ हम सभी लोग मंदिर चल रहे है घूमने के लिए। थोड़ी देर में मैं भी तैयार हो कर उनके सामने प्रस्तुत था।
हमलोग पनकी के सिद्धबली हनुमानजी के मंदिर गए। जो कि इस इलाके का सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। मंगलवार होने की वजह से मंदिर में बजरंगबली के दर्शन के लिए बहुत लम्बी लम्बी कतार लगी थीं। परन्तु नाना की जान पहचान पंडितजी के साथ होने पर ज्यादा वक्त नहीं लगा और बजरंगबली के दर्शन में भी कोई तकलीफ नहीं हुई। हमलोग दर्शन कर के वापिस पनकी में नाना के घर आ गए।
शाम ढलते ही मेरे दिल मे अजीब सी बैचैनी होने लगी। मुझे पिछली रात की घटना याद आ गई। मेरे जेहन में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे। मैं यह भी सोच रहा था कि यदि कल जैसी घटना फिर हुई तो मैं अगले दिन ही देहरादून के लिए निकल जाऊंगा। थोड़ी देर में डिनर करने का वक़्त हुआ। मैं डिनर करने के लिए बैठा था और नानी और चाची मुझे और नाना को खाना परोसा रही थी। चाची ने जब देखा कि नानी भी खाना परोसा रही है तो चाची बोली-"मम्मी आप बैठो न, मेरे रहते आप क्यों तकलीफ कर रही हो?
चाची की बात सुनकर नानी पहले मुस्कुराई फिर बोली- "बेटी पहली बार तो मेरा नाती यहां आया है। क्या मैं अपनी नाती को दुलार भी नहीं कर सकती?" उनके इस जवाब को चाची काट न सकी और मन्द मन्द मुस्कुराकर ही रह गई।
जब मेरी नजर थाली में स्वादिस्ट व्यंजनों पर पड़ी तो मन प्रफ्फुलित हो उठा। आज खाने में कश्मीरी पुलाव और तड़के की दाल थी जो कि मुझे अत्यंत प्रिय थी। तड़के के छोंको ने जहां भूख और भी बढ़ा दी थी तो दूसरी तरफ कश्मीरी पुलाव की सुगन्ध ने होश खोने पर मजबूर कर दिया था। खाना खाने पर पता चला कि खाने से जैसी खूबसूरत सुगंध आ रही थी खाना उस से भी कहीं बेहतर बनी थी। मैं खाने में इस तह खो गया कि मुझे कल रात वाली घटना का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रहा।
मैंने आज जरूरत से ज्यादा खा लिया था इसलिए खाने के बाद सीधे बिस्तर पर जा कर लेट गया। लेकिन जैसे ही बिस्तर पर आया तो मुझे ख्याल आया कि कल वाली घटना आज क्यों नहीं हुई। आज खाना खाते वक़्त धम्म धम्म वाली आवाज़ क्यों नहीं आई? हमलोग आज मंदिर गए थे कहीं उसकी वजह से तो....। इस तरह के अजीब अजीब सवाल मेरे दिल में घर बना रहे थे। मैंने सोचा कि सही तो है अगर आज आवाज नहीं आई तो, नहीं तो मुझे जल्द ही यहां से निकलना पड़ जाता। अभी तो मैं कानपुर ढंग से घुमा भी नहीं था। मैंने मन ही मन बजरंगबली का शुक्रिया किया और चादर तान कर सो गया।
अगली सुबह बारिश शुरू हुई और शाम तक लगातार बारिश ही होती रही, जिसके वजह से हमलोग कहीं जा नही पाए। शाम को चाय और पकौड़े के बाद हम चारो ने मिलकर लुड्डों खेला। नाना अक्सर मामा के दोनों बच्चों के साथ शाम को खेला करते थे। मैंने वहां आकर उनलोगों की पुरानी यादें ताजा कर दी थी। मैं भी उनलोगों के साथ काफी घुल मिल गया था जो कि मुझे भी बहुत भा रहा था। लुड्डों खेलने के बाद नाना सब्जियां वगैरह लेने सब्जी बाजार की तरफ चले गए थे और मैं नानी के साथ गप्पों में लग गया था।
रात के 9 बज रहे थे। रात को खाने का वक़्त हो चला था। हम चारो लोग खाना खाने के लिए बैठ गए। मेरे मन में उत्सुकता बढ़ रही थी कि आज खाने में क्या होगा? जैसे ही चाची ने मुझे खाना परोसा मैं हमेशा की तरह खुश हो उठा क्योकिं आज चिकन दम मसाला बना हुआ था। चिकन दम मसाला बनाने में चाची की टक्कर का कोई नहीं था। चिकन दम मसाला को देखते मेरे मुंह मे पानी आ गया। मैंने जैसे ही खाने के लिए हाथ बढ़ाया की "धम्मम धम्मम धड़ाम" जैसी आवाजे आने लगी। अचानक फिर से इस तरह की हरकतों से सभी लोग सहम गए। कुछ देर तक हमलोग बिल्कुल ही शांत रहे। चुप्पी तोड़ते हुए मैंने कहा-" नानाजी आखिर ये माजरा क्या है? कोई कुछ बताता क्यों नहीं?"
नाना बोले-"बेटा तुम खाओ इनसब चीज़ों पर ध्यान न दो।"
मैं बोला-" नहीं नानाजी अब नहीं। या तो आप बताओ नहीं तो मैं खुद छत पर जा कर देख कर आता हूँ।" यह कहते ही मैं झटके से कुर्सी छोड़ अपने जगह पर खड़ा हो गया। आज मुझे मामले की तह तक जाना था। नानाजी आज मेरे सामने वाले कुर्सी पर बैठे थे, जब तक वो हाथ पकड़ा कर कल की तरह मुझे बैठाते मैं लपक कर छत की तरफ फुर्ती से चल पड़ा। सभी खुले मुंह से मेरी तरफ ध्यान से देख रहे थे।
मैं जैसे ही सीढ़ी चढ़ता हुआ छत पर पहुँचा छत का नजारा देखते ही मेरे होश उड़ गए। मेरे पांव अपनी जगह पर ही जम गए। मेरे आंखों पर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था। मैं डर के मारे पसीने से तर बतर हो गया। मैं चीख मार कर वहीं गिर पड़ा। मेरे गिरते ही सभी छत पर दौड़े चले आये थे। मुझे सम्भलते हुए वो लोग नीचे कमरे में ले कर आए। मेरी आंखे खुली की खुली थी। वो लोग मेरे इस हालत को देख कर परेशान हो गए। उनलोगों ने मुझे वहां बिस्तर पर लिटा दिया और मेरे साथ नानी को वहीं रुकने को कह दिया। नाना उस कमरे से बाहर आ गए और चाची भी उनके पीछे पीछे हो चलीं थी। मैं कुछ करने की हालत में नहीं था लेकिन मेरे कानों में नाना और चाची की बातें आ रही थी।
"इसको जब तक मैं रोकता तब तक ये छत पर चल गया था। अब मैं इसको क्या कहूंगा और देहरादून क्या जवाब दूंगा।" नाना घबराए घबराए स्वर में चाची से बोल रहे थे। उनकी बातों को सुनकर चाची बोलीं-" पिताजी लेकिन ऐसा होना तो बन्द हो गया था न? फिर अचानक कुछ दिनों से कैसे शुरू हो गया?"
नाना-"ह्म्म्म जब से नरकटियागंज वाले नेपाली गुरुजी ने इस घर में पूजा हवन करने के बाद रक्षा सूत्र से बांधा था, तब से तो कोई भी इस तरह की अप्रिय घटना नहीं हुई। पता नहीं ये अचानक पिछले तीन दिनों से फिर से क्यों शुरू हो गया।"
उनकी बातों को सुनकर चाची ने कहा-"क्या कहा आपने? घटना बन्द होने के बाद इतने सालों बाद फिरसे परसो से शुरू हुआ है क्या?
नाना- हाँ बेटी उस दिन के बाद तो अब सीधे परसो ही हुआ है।
चाची- पिताजी क्यों न फिर से नेपाल के नरकटियागंज वाले गुरुजी से बात की जाए? हो न हो वो जरूर इस समस्या का समाधान निकालेंगे।
नाना थोड़ी देर सोचने के बाद बोले-"हाँ बिल्कुल सही कहा तुमने। अभी मैं उन्हें फ़ोन लगाता हूँ। यह कहकर नानाजी ने अपना मोबाइल निकाला और गुरुजी को फ़ोन लगा दिया। थोड़ी देर में ही उनको फ़ोन लग गया और गुरुजी ने फ़ोन उठा लिया।
नानाजी-"कोटि कोटि नमन गुरुजी।"
गुरुजी-"आयूष्मान भवः। कहो कैसे याद किया?"
नानाजी ने पूरी घटना गुरुजी को विस्तार से बता दिया। गुरुजी ने पूरी बात सुनने के बाद उनको कहा कि चिन्ता करने की बात नहीं है। वो किसी जजमान के गृह दोष निवारण के लिए लखनऊ ही आए हुए थे। उन्होंने कहा कि यहां का काम आज पूरा हो गया है वो कल सुबह ही वहां आ जाएंगे।" लखनऊ से कानपुर की दूरी मात्र 62 की.मी. ही थी जो कि सवा घंटे में ही आसानी से पहुंचा जा सकता था।
सुबह 7:30 ही गुरुजी घर पहुँच गए थे। वहां पहुंच कर वो पूजा स्थल पर बैठ कर दोनों आंखों को बन्द कर के गहन ध्यान में लग गए। हम सभी उनका ध्यान से बाहर आने का इंतजार कर रहे थे। लगभग आधे घंटे बाद वो पूजा स्थल से उठे और मुझे गंगाजल देते हुए कहा कि इसे पूरे घर मे भी छिड़को औऱ इसे छत पर भी छिड़क देना। मैंने पूरे घर मे छिड़क दिया लेकिन छत पर जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैंने बचे हुए गंगाजल को पूजा वाले कमरे में रखा और गुरुजी के पास आ कर खड़ा हो गया। गुरुजी के मुख पर गजब का तेज था। उनके माथे पर लाल तिलक सुर्ख लाल था जो कि उनके व्यक्तित्व पर फब रहा था। उन्होंने सफेद रंग की धोती पहने हुए थी और शरीर के ऊपरी हिस्से पर जनेऊ धारण की हुई थी। गुरुजी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा-"देखिए घबराने वाली बात नहीं है। मैं सारे संकटों को दूर कर दूंगा।"
नाना बोले-"गुरुजी पिछली बार जब ऐसी ही घटनाएं हुई थी तब तो आपने घर को रक्षाशुत्र से बांध दिया था तो फिर यह दुबारा कैसे घटित हुई?"
गुरुजी-" इस घटना के दुबारा होने के पीछे ये लड़का ही ज़िम्मेदार है।"
गुरुजी की इस कथन से सभी चौक पड़े। मैं तो बिल्कुल ही घबरा गया था। मेरी बोलती बन्द हो गई। मेरे बिना कुछ किए ही मुझ पर इन सारी घटनाओं का इल्जाम लग गया था।
"ये क्या कह रहे है? यह भला इस घटना के पीछे जिम्मेदार कैसे है? आखिर ऐसा इसने किया क्या है?"
गुरुजी ने नानाजी की बातें सुनी फिर बड़ी धीरज और शान्त स्वर में कहा-" मैं शुरू से बताता हूँ तभी आपके समझ मे आएगा। बात उन दिनों की है जब मुझे आपलोगो ने पिछली बार बुलाया था। उस समय भी यही घटना हुई थी तब मैंने यहां विधिवत पूजा पाठ कर के इस घर को रक्षासूत्र में बांध दिया था।"
"ये सब तो हमे पता है। लेकिन आपने यह भी तो कहा था कि ऐसी घटना फिर नहीं होंगी।" गुरुजी की बातों के बीच मे ही चाची बोल पड़ी।
"हम्म मैंने बिलुकल ही ऐसी बात कही थी। मैं कहाँ मुकर रहा हूं। लेकिन मैंने साथ साथ आप सभी को हिदायत दी थी। क्या आपलोगों को याद है? मूझे लगता है समय के साथ साथ आप सभी लोग भूल गए।" गुरुजी इतना कहते ही एक बार फिर से मुस्कुराकर नानी के तरफ देखने लगे। नाना बोले-"कैसी हिदायत गुरुजी। कृप्या अपनी बातों पर प्रकाश डालिए।"
" मैंने आपलोगो को उस वक़्त दो बातें कही थी। पहली बात तो ये कही थी कि इस घर में वास्तु दोष है। इस घर का प्रवेश द्वार दक्षिण की तरफ है जो कि वास्तु के अनुसार पूर्व दिशा में होना चाहिए। दक्षिण दिशा यमराज और कुबेर का प्रवेश द्वार होता है। कुबेर जी की कृपा से धन की कमी तो नहीं रहेगी लेकिन यह दिशा यमराज के होने के कारण इस घर के लोगों के स्वास्थ्य पर काफी नुकसान पहुँचाता है। मैंने आपलोगो को हिदायत दी थी कि इस घर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की तरफ करने को परन्तु पूर्व दिशा की तरफ करने से समस्या का समाधान नहीं होता। आपलोगो की सामाजिक समस्या औऱ बढ़ जाती क्योकि पूर्व दिशा में कुछ फुट की दूरी ओर ही रेलवे की पटरियां हो कर निकलती हैं इसलिए उधर आवागमन के लिए उचित नही रह पाता और वो कॉलोनी का पिछला हिस्सा पड़ता है इसलिए उधर करने का कोई औचित्य ही नही रहा था। इसलिये मैंने इस घर को हवन और मंत्रो से शुद्ध कर के इसको रक्षासूत्र से बांध दिया था। रक्षासूत्र बांधने के बाद मैंने आप सभी को दूसरी हिदायत यह दी थी कि इस घर मे कभी भी कोई माँस और मदिरा का प्रयोग नहीं करेगा अन्यथा इसके भयंकर परिणाम भुगतने को तैयार रहना।" गुरुजी के मुख से यह सुनते ही हमसभी के तोते उड़ चले थे।
नाना और नानी को अपने भूल का एहसास हुआ। ऐसा नहीं था कि उनलोगों ने जानबूझ कर ऐसा किया बल्कि वे लोग पुत्री और नाती के मोह में गुरुजी की दूसरी हिदायत को भूल गए थे। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोलें-"आपके पुत्र और पुत्रवधू का इस घर को छोड़कर जाने की वजह भी यही है कि आपके पुत्र को हर सप्ताहंत में मदिरा और मांस चाहिए होता था। आपदोनो ने उस दिन पूजा के बाद कभी ऐसी तामसिक चीजो को घर मे लाने से साफ साफ मना कर दिया था। जब एक दिन घर मे आपकी बहू, बिना आपके आज्ञा के मुर्गे का मांस पका रही थी तो उसके दुर्गन्ध से आपकी धर्मपत्नी को पता चल गया और घर मे कोहराम मच गया। आपका बेटा सत्यदेव उस दिन कहीं बाहर से ही पी कर आया था और अपने ही माँ से क्रोधित स्वर में चीख़ चीख़ कर ऊंची आवाज में बातें कर रहा था। अपनी पत्नी के आंखों में आप आंशू देख न सकें और गुस्से में आपने आपा खो दिया था और सबके सामने अपने पुत्र को एक जोरदार तमाचा रसीद कर दिया था। अगले सुबह ही वो अपने बीवी बच्चों सहित अपने ससुराल विजयनगर चला गया था जो कि आजतक लौट कर नहीं आया।"
"अब उन पुराने जख्मों को कुरेदने से क्या फायदा गुरुजी? आज उसे गए हुए लगभग 14 वर्ष हो चुके हैं। बची खुची ज़िन्दगी हम भी वनवास की तरह अकेले यहां गुजारते हैं।
कृप्या कर के एक बार फिर से हमे इस जंजाल से मुक्ति दिलवाएं।" यह कहकर नाना ने अपने दोनों हाथों को जोड़ लिया और गुरुजी की तरफ अधीर भाव से देखने लगे।
गुरुजी-"देखो इसका बस एकमात्र उपाय है।"
"हम कुछ भी करने को तैयार हैं गुरुजी। बस आप बताइए हमे करना क्या होगा।" नाना मन में पक्का इरादा कर के बोले थे। मैं काफी देर से यह सभी बातें सुन रहा था। मुझसे रहा न गया और मैं बोल पड़ा-"गुरुजी वह सब तो ठीक है लेकिन मेरी एक बात समझ मे नहीं आई कि रह रह कर किसी दिन भी छत पर धम्मम धम्मम की आवाज क्यो करते हैं?
गुरुजी-"बेटे यह धम्म धम्म की आवाज ऐसे ही नहीं आती। तुमने गौर किया होगा कि जिस दिन इस घर मे मांस को पकाया गया होगा वो उसी दिन इस तरह का उत्पात मचाते हैं और हां वो धम्म की आवाज ऐसे ही नहीं आ रही थी। उसके पीछे भी कारण है?"
"कारण भला इसके पीछे क्या कारण हो सकता है गुरुजी?"
गुरुजी-"वो नृत्य करते हैं।"
मैं बोला-" नृत्य भला इसमे नृत्य करने की क्या बात है?"
गुरुजी बोले- इस घर मे चिकन (मांस) आने की खुशी में वो नृत्य करते हैं क्योंकि जैसे ही इस घर मे चिकन आता है उनकी निद्रा टूट जाती है जिसको मैंने अपने रक्षासूत्र से बांधा था। वे प्रेत जश्न मनाते हैं कि उनके ऊपर अब कोई भी किसी तरह का बंधन नही है जो उनको रोक सके।"
मैं बोला-"लेकिन मैंने तो उस दिन छत पर चार कंकालों को देखा था जो कि बहुत ही भयानक दिख रहे थे। उनके शरीर पर कहीं भी मांस का टुकड़ा नहीं था। बहुत की खूंखार और डरावने दिख रहे थे।"
गुरुजी-" बेटा उन नर कंकालों से ही उनकी मुक्ति के राज भी इसी घर से जुड़े हैं।" इस घर के दक्षिण हिस्से में जहां तुम्हारे मामा का कमरा है ठीक उसी कमरे में जिस कमरे मे जमीन के अंदर चार नरकंकालों के शरीर पड़े हुए हैं। यह घर कभी इसी परिवार का हुआ करता था। वर्षों पहले यहां के भूमिहारों ने इस जमीन को हथिया लिया और जिसका यह घर था उनके घर रात के अंधेरे में घुसकर उस परिवार का गला रेत दिया और रातों रात वहीं ज़मीन के अंदर गहरी खुदाई कर के दफना दिया और इस घर को अपने कब्जे में कर के तुम्हारे नाना के पिताजी स्व० करीमन गुप्ता को मोटी रकम में बेच दिया था।"
मैं बोला-"मैं नहीं मानता इस बात को। मैं कैसे विश्वास कर लूं की आप जो कह रहे हैं सच कह रहे हैं।"
गुरुजी शालीनता के साथ मुस्कुराए और बोले-" बेटा मैंने सालो भगवान की तपस्या और ध्यान कर के कुछ सिद्धियां प्राप्त की है, जिसके फलस्वरूल मैं अलौकिक शाक्तियों को परास्त कर के समाधान ढूंढता हूँ। यदि तुम्हे तब भी विश्वास नही तो कल जब उस कमरे की खुदाई होगी तब खुद देख लेना।"
मैं बोला-"गुरुजी मेरा आपका अपमान करने का कोई इरादा नहीं था मैं तो बस उत्सुकतावश यह सवाल कर बैठा।"
गुरुजी मेरे उत्तर सुनकर मुस्कुरा दिए और कल उस कमरे की खुदाई के लिए चार मजदूर और पूजा की सारी विधि को पूर्ण करने के लिए सारे सामाग्री का बन्दोबस्त करने को कहा।
मैं पूरी रात नहीं सो पाया था। सारी रात इसी बैचैनी में निकाल दिया था कि कब सुबह होगी। मैंने पूरी रात करवटें बदल बदल के गुजार दी।
अगली सुबह जब मैं उठा तब मैंने देखा कि गुरुजी बरामदे में हवन कर रहे थे और मामा के कमरे में खुदाई का काम जारी था। लगभग पौन घंटे की मेहनत के बाद मजदूरों न चार नर कंकाल निकाले। मैं देखते ही चौक गया। मुझे गुरुजी की कल की बाते याद आ गईं। गुरू जी का भी हवन और पूजा खत्म हो चुका था। वो भी उस जगह पहुँचे और उन्होनें मुझे बताया कि जो नर कंकाल का समूह निकला है उसमें एक कंकाल नर का है और दूसरा कंकाल एक मादा का है जो कि पति और पत्नी थे।
बाकी के दो नर कंकाल इनके मासूम बच्चों की थी। यह देख कर मेरी अंतरात्मा कांप गई कि कैसे कोई किसी की पराए धन संपत्ति के लिए मासूमों का भी खून कर सकता है। मैं उस घटना के अगले दिन ही देहरादून आ गया था। मेरे देहरादून आते ही चाची का फोन आया था कि मामा को अपनी उस दिन के बर्ताव पर पछतावा था और वो अपने परिवार के साथ वहां नाना और नानी के साथ रहने आ गए थे। आज उस घटना को हुए लगभग 18 वर्ष हो चले हैं लेकिन उस दिन के बाद न तो कोई अप्रिय घटना वहां घटित हुई न ही मैं कभी वहां जाने की दुबारा हिम्मत ही कर पाया। लेकिन आज भी उस घटना के बारे में कभी कभी सोचता हूँ तो ऊपर से नीचे तक सिहर उठता हूँ क्योंकि मैंने उस रात छत पर चार नर कंकालों को एक साथ नृत्य करते हुए देखा था।
समाप्त